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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 8 - कथा नहीं व्यथा समझो

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    यह भारत वर्ष है जहाँ पर धर्म की मुख्यता है और जब धर्म की मुख्यता हो जाती है तो धर्म यद्यपि एक होते हुए भी मानने वाले अनेक होने के कारण उसमें अनेक रूप देखने को मिल जाते हैं और मिलते हैं लेकिन इन सबका ध्रुव एक मात्र अहिंसा होता है जिसे धर्म के रूप में हम स्वीकारते हैं। अहिंसा एक निषेध वाचक शब्द है। वह किसका निषेध कर रहा है? हमें समझना चाहिए। विधान किसका है, निषेध किसका है? यह बात ज्ञात हो जाये तो हम बहुत जल्दी उसको प्राप्त कर सकते हैं। अहिंसा हिंसा का विपरीत रूप है। जहाँ पर हिंसा का तांडव नृत्य होता है, वहाँ पर हम अहिंसा के दर्शन नहीं कर सकते। हाँ, केवल कोशों में हम उसको पा सकते हैं। शब्दकोश उस वाक्यभूत अहिंसा के लिए है लेकिन फिर भी जब हम अपने आपको अहिंसा के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत नहीं कर सकते, वहाँ पर हमें उस समय एक मात्र कोश का सहारा ही लेना पड़ता है।

     

    इतिहास में अतीत की घटनाएँ आ जाती हैं उनको हम जीवित अवस्था में देख भी सकते हैं और नहीं भी देख सकते हैं। वह एक स्मारिका का रूप धारण कर लेता है। अहिंसक व्यक्ति का दर्शन सदा काल होना चाहिए लेकिन कुछ ऐसे प्रसंग होते हैं जो हमारे लिए चिंता के कारण बन जाते हैं। अहिंसा धर्म का ह्रास होता चला जा रहा है इसके उपरान्त भी यह नहीं कहा जा सकता है कि आज अहिंसा के दर्शन ही नहीं हो सकते। इसके दर्शन करने के लिए विचारों में समीचीनता पहले अनिवार्य है। आचार भी समीचीन बन जाता है जब विचार समीचीन होते हैं। हमारे कदम आचार की धरती पर तब पड़ते हैं जब हमारे हृदय में अथवा मस्तिष्क में सद्विचार उद्भुत होते हैं। विचार के अनुरूप ही अचार के कदम आगे बढ़ते चले जाते हैं परिणामस्वरूप आचार के कदम और कदमों के चिह्न हम लोगों को देखने के लिए मिल जाते हैं। विचार किसी गूढ़ अवस्था में रहते, मस्तिष्क में रहते हैं, हृदय में रहते हैं उनका प्रत्यक्ष दर्शन हम नहीं कर पाते हैं और यह संभव भी नहीं है। किन्तु उसकी परिछाया, उसके चिह्न, उसका मूर्त रूप हम आचार में देख सकते हैं। विचारों का कार्य रूप आचार है।

     

    भारत सदैव चरण और आचरण के चिहों की पूजा करता आया है किन्तु उन चरण चिहों की पूजा करता आया है जिन चरणों में अहिंसा पलती है। जिन चरणों में अहिंसा उतर आती है तो मस्तिष्क में समता/सहानुभूति के विचार विशेष रूप से घर बना लेते हैं। ऐसे महान् पुरुष जो विचारक होते हैं वे आचारवान भी अवश्य हुआ करते हैं।

     

    मौसम का जैसा प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार माहौल का भी प्रभाव पड़ता चला जाता है। मौसम का प्रभाव शरीर के ऊपर, साक्षात् पड़ जाता है और धीरे-धीरे मन पर भी प्रभाव पड़ने लग जाता है। अहिंसक विचारों का प्रभाव युग के ऊपर अवश्य पड़ता है लेकिन आज का युग कुछ आगे बढ़ गया है अर्थात् बहुत पीछे खिसक गया है। विचारों में जब भेद हो जाता है तो आचारों में भेद होना अनिवार्य होता है और आचारों में शैथिल्य बिना कारण के नहीं हुआ करता है। सदैव ही विचारों के द्वारा सोचा जाता है और उसी सोच के माध्यम से आचारों में भेद आता चला जाता है।

     

    एक घटना मैं सुनाता हूँ उस समय की जब विभीषण राम के शिविर में शरणागत होने आया है। युद्ध का समय ऐसा था कि हम अपने श्वाँस के ऊपर विश्वास नहीं रख सकते, वह समय ऐसा था कि हम अपने मन के ऊपर विश्वास नहीं रख सकते, वह समय ऐसा था कि हम अपनी छाया के ऊपर भी विश्वास नहीं रख सकते। पूछना पड़ता है युद्ध के समय में कि शत्रु का भाई आया है? अनेक शंकाएँ उठती हैं। शरणागत की आड़ में कोई षड्यंत्र भी तो हो सकता है लेकिन उसमें भी एक व्यक्ति ऐसा होता है जो इन सब प्रश्नों के लिए स्थान नहीं देता है। गुप्तचर ने समाचार दिया, विभीषण आप से मिलना चाहता है। रामचन्द्र जी ने कहा आने दें, सभी लोग आश्चर्य चकित कि शत्रु के भाई को बिना परीक्षा किये अन्दर आने की अनुमति दे दी। सभी लोग तो सोच रहे थे कि बन्दी बनाने की बात कहेंगे रामजी! जैसा यहाँ पर मौन है, कुछ समय के लिए मौन था वहाँ। फिर कहा गया भेज दो। जब भेज दो यह कह दिया तो भेजना ही पड़ेगा, बिना सोचे यह कार्य नहीं होना चाहिए। बिना सोचे आपने कहा भेज दो। वो कौन व्यक्ति है? उसके बारे में आपको अध्ययन करना आवश्यक है चूंकि आपका विषय है लेकिन आपका विषय होते हुए भी हम तो कम से कम कहना चाहेंगे क्योंकि यहाँ पर यदि गलत व्यक्ति आ जाये तो खतरा पैदा हो सकता है। जैसे नदी चढ़ जाने से नदी पर बने मकान के लिए खतरा होता है। यदि वह घुस करके शहर में नदी आ जाये उसका प्रबन्ध करना पहले आवश्यक होता है। चाहे वह दिन हो, चाहे रात हो, वह प्रबन्ध आवश्यक होता है, फिर यह नदी तो समुद्र की तरह है। सुनते हैं जब चक्रवात आ जाता है, समुद्र का बहुत सारा जल शहरों में घुस जाता है।

     

    तटों का उल्लंघन हो जाता है वहाँ की आबादी बबाद हो जाती है तो यह भी इसी प्रकार का है। रामचन्द्र जी ने कहा शरणागत के सम्बन्ध में ज्यादा विचार नहीं करना चाहिए। विभीषण को अन्दर बुलाया गया। चूंकि वह रावण का भैय्या था और रावण को तो आप समझते हैं इस भारत भूमि के लिए कैसा क्या था? प्रतिवर्ष उसके पुतले जलाये जाते हैं। प्रतिवर्ष उससे मनोरंजन करके उसको उपहास का पात्र बनाया जाता है। चूंकि उसके पीछे बहुत बड़ा इतिहास है। विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होगा जो राम रावण विभीषण के बारे में नहीं समझता हो। बड़े-बड़े लेखक अपनी लेखनी का विषय बना चुके/बना रहे हैं। राम ने उसको ज्यों ही देखा, कोई अंतर नहीं आया, उनके मन में। जहाँ पर विराट् जीवन चलता है, विशालता होती है, वहाँ पर इस तरह की संकीर्णता के लिए स्थान नहीं मिला करते है |

     

    आपके पास आँख है आँख की पुतली है, उसमें तिनके बराबर स्थान है, इसमें से विराट जन समूह देखने में आ रहा है। यह रिफ्लेक्शन एक विशेषता मानी जाती है। बुद्धि जिसकी संकीर्ण होती है, उसके व्यक्तित्व में/बुद्धि में एक व्यक्ति टिकता है। बाकी सारा का सारा विपक्ष में खड़ा हो जाता है। शतरंज का खेल होता है। शतरंज खेलने वाला यदि संकीर्ण बुद्धि वाला है तो वह हार जायेगा। ऐसा हार जायेगा कि एक सैनिक के द्वारा भी राजा की टोपी गिर जायेगी। उसी शतरंज के समान युद्ध में दो सेनाएँ खड़ी हैं वहाँ अपनी सेना की मजबूती पर ही ध्यान नहीं देना है बल्कि शत्रु सेना की कमजोरी/मजबूती पर भी ध्यान देना है। प्रतिपक्ष को यदि भूल जायेगा, निश्चत है हारेगा और वह अपने पक्ष की कभी भी रक्षा नहीं कर सकता और यदि प्रतिपक्ष को भी अपने अंडर में लेना चाहता है तो वह तीन काल में अजेय होगा।

     

    विचारों में विशालता रखिए। कहाँ से किस ओर से विचारों का प्रहार हो रहा है इस ओर ध्यान रखिए और देखने वाला विवेक/बुद्धि हमेशा जागृत रखे और वह राम ज्यों के त्यों बैठे है, सामने वाला वह व्यक्ति आ जाता है। लक्ष्मण आदि और जो भी सहयोगी थे, वो सारे के सारे उसे देखकर भीतर ही भीतर गर्म होने लगते हैं, इस बात को वह राम बहुत अच्छे ढंग से देख रहे हैं और सोच रहे हैं। एकाएक राम के अधरों से शब्द निकलते हैं। आइये! कैसे आना हुआ। वह हाथ जोड़कर खड़ा होता है, ज्यों ही वह हाथ जोड़ता है, त्यों ही मन में जो संदेह था, वह थोड़ा-थोड़ा सा उतरने लग जाता है।

     

    लेकिन जब उसने कहा कि हे राजा राम आपसे अकेले में बात करना चाहता हूँ। यह सुनते ही लक्ष्मण का पारा गरम हो जाता है। यह षडयंत्री दिखता है, भैय्या को अकेला पाकर कुछ कर सकता है। लक्ष्मण ने कहा- नहीं जो कुछ कहना है सबके सामने कहिये। राम कहते हैं लक्ष्मण से चुप बैठ जाओ, अब क्या करें? हर बात में बैठ जाओ और वह भी चुप बैठ जाओ, बोलो भी नहीं। यहाँ तलवार निकाल कर खड़े होना चाहिए लेकिन क्या करें? भैय्या का आदेश और राम ने एकान्त समय दिया, विचार विमर्श हुआ। बाद में लक्ष्मण को भीतर बुलाया। लक्ष्मण ने देखा, विभीषण भैय्या के चरणों में बैठा है। विभीषण की आँखों में पानी बह रहा है और कह रहा है, हमारे बड़े भाई अनीति/अन्याय पर उतर आये हैं। राज्य का एवं प्रजा का नाश करने के मार्ग पर चल पड़े हैं, नीति की बातें अच्छी नहीं लगती हैं। विनाश कालीन विपरीत बुद्धि हो गई है। अत: मैं भाई का व्यामोह छोड़ कर सत्य का पक्ष लेने के विचार से आपकी शरण में आया हूँ। यह वचन सुनकर लक्ष्मण आश्चर्य चकित रह गया।

     

    राम की यह विशाल विचारधारा आज की नहीं वह तो बचपन की थी, बचपन की ही नहीं पूर्व जीवन की थी। ये तो बहुत सुदूर संस्कारों से संस्कारित थे। इनकी दीर्घ साधना का फल है और जब उनके चरणों में विभीषण रो रहा है, लक्ष्मण भी जो कठोर हृदय वाला था थोड़ा सा पसीज गया। लेकिन लक्ष्मण फिर भी राजा के नाते सोच रहा है- हम एकदम विश्वास करने लग जायें ये ठीक नहीं है। राजा का मन विश्वस्त नहीं होता और महाराज का मन विश्वस्त रहता है हमेशा-हमेशा क्योंकि मन के ऊपर अंकुश रहता है। जिस व्यक्ति के मन के ऊपर अंकुश रहता है, मन इधर-उधर की बात नहीं कर सकता है। जिसका संयम जीवन नहीं होता वही व्यक्ति बार-बार सोचता है कि कहीं ऐसा न हो जाये कि विश्वासघात हो जाये।

     

    अपने मन के ऊपर भी विश्वास नहीं करता है लेकिन जो संयमी होता है, संयम के सम्मुख होता है वह हमेशा-हमेशा अपने मन के ऊपर विश्वास रखता है। नहीं, ये साथ देगा क्योंकि उसका विचार करने के उपरान्त उत्पन्न हुआ है, देखा देखी नहीं हुआ करता और ये बात हुई और दोनों चरणों में बैठ जाते हैं, लक्ष्मण भी फिर कुशल क्षेम पूछता है। राम कहते हैं कि लक्ष्मण इनको अपनी सेना में भर्ती कराना। लक्ष्मण कहता है सेना में भर्ती कराना ये तो बगावत की बात आ गई। एक मिलिट्री दूसरी मिलिट्री को स्वागत करे, ये तो कहीं संभव नहीं। इनको हम यहीं पर बिठा सकते हैं लेकिन हमें विश्वास नहीं हो रहा है कि हमारी सेना में भर्ती होकर अपने भाई की सेना से ईमानदारी से लड़ेंगे! राम कहता है कि ऐसी बात नहीं है, वह रावण के सामने खड़ा होगा। तुम भी और मैं भी खड़े होंगे। लेकिन आज अन्याय के सामने न्याय खड़ा हो रहा है, यह ध्यान रखना। न्याय का यह पक्ष है। विभीषण ने रावण के अन्याय को सहन नहीं किया और राम के पास न्याय था। उसकी महक, उसकी सुरभि, उनकी नासिका तक पहुँच गयी। इसको कोई रोक नहीं सकता। आप नाक बंद कर लें लेकिन विचारों की गंध ऐसी हुआ करती है और आचारों की गंध वह कभी भी आपके किसी भी अवयव से घुस कर आपको संतुष्ट कर सकती है। भाई-भाई एक ही कोख से जन्म लेने वाले भाई की तरह विभीषण राम और लक्ष्मण का अपना हो गया। सब लोग विस्मित हो गये। दो का काम तीन में आ गया और ये ध्यान रखना तीन होते ही संगीत का प्रवाह अपने आप बढ़ने लग जाता है।

     

    एक नर्तक होता है, एक गायक होता है और एक वादक होता है फिर तालिया अपने आप ही बज जाती है। तब वह आनंद अपने आप आने लग जाता है तो ऐसी ही बात हो गयी। ये कैसी घटना? क्या आज यह संभव है? सामने वाला बहुत भ्रष्टाचार की ओर बढ़ रहा है, सामने वाला व्यक्ति विपरीत है, सुनते हैं आज राजनीति में कोई व्यक्ति काम करने लग जाता है तो कहने लग जाता है कि महाराज ये विपक्ष के नेता हैं। मैंने कहा- विपक्ष का कैसा नेता? भाई आपका पक्ष है, वो विपक्ष है। उनके लिए आप विपक्ष हो। दोनों विपक्ष हो गये। देश का पक्ष लेने वाला कोई यहाँ पर है कि नहीं? बड़ी विचित्रता है, हम हमेशा-हमेशा विपक्ष की ओर देख रहे हैं, लेकिन देश का क्या पक्ष होता है, इस ओर नहीं देखा जाता है और संकीर्ण बुद्धि का ये परिणाम होता है कि हमेशा-हमेशा पार्टियाँ खड़ी हो जाती हैं, सत्ता खड़ी हो जाती है। देश के लिए कौन हितकारी है? यह ज्ञात करना बहुत कठिन हो जाता है जबकि दोनों अंग देश के हैं। ये कर्तव्य होता है कि कोई चुन करके आ जाता है तो दूसरा भी पक्ष उसको सहयोग दे, ये बात अलग है कि अंधाधुन्ध सहयोग नहीं देना चाहिए लेकिन उसकी कार्य योजना में हाथ बँटाना चाहिए तभी देश की उन्नति हो सकती है। और एक दूसरे को विपक्ष मानते रहे तो देश की उन्नति नहीं होगी और आपकी जितनी योजना है वही देश की उन्नति के लिए कारण है। जब आप खड़े होंगे तो वह अड़ेगा वह खड़ा होगा तो आप अड़ेंगे। ऐसी स्थिति में देश वहीं पर खड़ा होकर के देखता रहेगा।

     

    मंदोदरी ने, विभीषण ने समझाया, प्रजा हार गयी समझाते-समझाते, अपना मन भी कभीकभी कहता है कि वस्तुत: ये ठीक नहीं कर रहा हूँ लेकिन फिर भी एक बात जब उठ गई तो उसको वापस लेना बहुत कठिन होता है। जो व्यक्ति गलत करे, गलत कदम उठाये और मुख से गलत बोले फिर भी कहे कि यह गलती मेरी नहीं है, अथवा मैं माफी नहीं माँगना चाहता हूँ। ऐसा कहे तो समझ लेना उसका हित होना संभव नहीं है। अहित के बारे में वह सोच रहा है, सही हित से वह वंचित रह रहा है और रावण की यही दशा हो गई। रावण कहता है कि जैसे मैंने पुरुषार्थ पूर्वक सीता को उठाया था उसी प्रकार राम का पुरुषार्थ हो, लक्ष्मण का पुरुषार्थ हो, फिर बाद में वह सीता मिलेगी। वह अपने आपको अहित के गर्त में धकेल रहा है और सामने वाला पक्ष कहता है- हे रावण! तू छोड़ दे, तू महान् योद्धा होकर के क्षत्रिय होकर के महान् नीतिज्ञ हो करके ऐसा क्यों कर रहा है? राम फिर भी कहते हैं, देख रावण मैं तुम्हें मारने के लिए नहीं आया हूँ लक्ष्मण को भी कह देता है कि इसके ऊपर किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग न करें। केवल इतना है कि हम सीता को सुरक्षित लेने आये हैं। लंका के आप राजा हैं आपको कोई मारेगा नहीं क्योंकि राजा के ऊपर कभी भी हाथ नहीं उठाया जा सकता है यह शतरंज खेल का एक नियम है। दूर से उसके लिए 'शह' दिया जाता है। यहाँ हटा दीजिए अपने राजा को। बस इतना ही या तो एकदम पीछे या आजू में, बाजू में या सामने या तिरछे कहीं भी एक घर वह चला जाता है। बस यही उसका कार्य है। अंत-अंत तक राजा के ऊपर हमला बोला नहीं जाता लेकिन राजा को घेरा जाता है अवश्य। रावण घिरता चला जा रहा है और ऐसे-ऐसे सैनिकों से घिरता चला जाता है, जब पतन होता है उस समय ही पतन का कारण नहीं होता। पतन के कारण बहुत पहले हुआ करते हैं। विचारों में, आचारों में अंतर होता चला जाता है। ये अब बातें देखकर के रावण को ऐसा लग रहा है कि मेरी हार निश्चत है और राम विजयी बनेगा और सीता को वह ले ही जायेगा। कोई बात नहीं लेकिन जब तक दम में दम रहेगा तब तक ये हरदम छोड़ने वाला नहीं है। यह भी इसका संकल्प है, कटिबद्ध है। ये कभी भी पीछे मुड़ करके देखेगा नहीं। क्षत्रिय है लेकिन क्षत्रियता रावण के पास नहीं रही।

     

    क्षत्रिय का अर्थ है जो पापों से बचाये प्रजा को, अहित से बचाये प्रजा को। जो व्यक्ति पाप के कुण्ड में स्वयं गिर रहा है प्रजा को वो कैसे बचा सकता है? यथा राजा तथा प्रजा वाली बात है। लेकिन आज राजा नहीं प्रजा है और प्रजा की सत्ता है। प्रजा के पास ऐसी क्षमता होनी चाहिए थी लेकिन नहीं है। आज प्रत्येक व्यक्ति ये नहीं सोच रहा है कि राष्ट्र की उन्नति किसमें है? वह अपनी बात सोचता है मुझे क्या मिलने वाला है? अरे देश को मिलेगा तो मुझे अवश्य मिलेगा। नहीं-नहीं देश को बाद में, पहले मुझे मिलना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा करेगा तो देश का क्या होगा? आज देख रहे हैं, आप बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ हैं और राजनीति क्या होती है ये पता नहीं है। जब तक प्रजा के हित में जो नहीं सोच रहा है, वह राजनीति नहीं जानता। वह राम-लक्ष्मण को जान ले, वह रावण को भी जान ले। रावण इतना बड़ा योद्धा फिर भी वह गिर गया, वह ऐसा गिर गया जैसे तूफान में बड़ का पेड़ गिर जाता है।

     

    सबसे बड़ा पेड़ होता है बड़ का लेकिन सबसे नाजुक पेड़ होता है। उसकी गहराई में ज्यादा जड़ें नहीं जाती हैं और बहुत फैली हुई होती हैं। तूफान में जल्दी शीर्षासन कर लेता है किन्तु बबूल के पेड़ और अन्य पेड़ इस ढंग से नहीं होते। वो इतने फैलते नहीं हैं और फैलते भी हैं तो नीचे गहराई में पहुँच जाते हैं। जो नीचे गहराई में नहीं जाता है उसका अवसान निश्चत है, उसका पतन निश्चत है और निश्चत रूप से वह अपयश का पात्र बनेगा। ये ही होने लगा। फिर भी राम कह रहे हैं, रावण! सोच ले! सोच ले! और लक्ष्मण कहता है राम को, विभीषण तो पक्ष में आ गए ठीक है लेकिन रावण के ऊपर भी आपकी कृपा बरस रही है? हमें समझ में नहीं आता। भाभी को जिसने चुराया, हाथ लगाया और उसको आप भाई कह रहे हैं? नहीं! यहाँ तलवार लपलपा रही है और जिह्वा कुछ कहने को आतुर हो रही है। राम कहते हैं- हाँ, अवसान होने के बाद कुछ कहा नहीं जा सकता। पतित होने के उपरान्त पावन बनाने की अपेक्षा, पतन होने से पहले ही उसे बचा दें, यही अच्छा होता है। गिराने के उपरान्त या गिरने के उपरान्त उठाने की अपेक्षा गिरते हुए को संभालना बहुत अच्छा होता है। लक्ष्मण बैठ जाओ तुम थक गये होगे। लक्ष्मण कहता है, बैठ जाऊँ? हाँ! हम आपकी नीति से थके तो हैं ही लेकिन यह थकावट और विशेष रूप से उत्तेजना प्रदान कर रही है क्योंकि जिस व्यक्ति का आज तक विश्वास नहीं है फिर भी आप विश्वस्त हैं। राम कहते हैं जब छोटा भैय्या आ गया तो बड़ा भैय्या क्यों नहीं आ सकता है? सोचने की बात है। एक खून, एक गोत्र, एक जाति इसी का नाम तो संतान है। उसका खून पलट गया तो बड़े भैय्या का क्यों नहीं पलटेगा?

     

    परिवर्तनशील है संसार। एक समय के, एक क्षण के उपरान्त हमारे विचारों में अंतर आ सकता है और सामने वाले व्यक्ति के आचार का अवश्य प्रभाव पड़ता है। उच्च आचरण जिसमें अहिंसा पलती रहती है वह उसका प्रतीक रहता है। जैनों के यहाँ विशेष बात कही है कि तुम अहिंसा के चिह्नों को सुरक्षित रखा करो। व्यक्तित्व की कोई बात नहीं है, व्यक्ति की कोई बात नहीं है लेकिन व्यक्तित्व कहाँ पर छिपा होता है? चरण चिहों में रहता है। उन चरण चिहों को बार-बार हम माथे पर लगा लेते हैं, उस चरण रज को हम अपने माथे पर लेते हैं क्योंकि चरण रज में अहिंसा की गंध आती है। अहिंसा की वह सुगंध हमारे जीवन को आमूलचूल परिवर्तित करने वाली होती है। संयम की गंध में जो व्यक्ति रह जाता है, उसका असंयम अपने आप ही परिवर्तित होने लग जाता है। बातों से नहीं, विचारों से नहीं। विचारों के द्वारा हम दूसरों को परिवर्तित तो कर सकते हैं लेकिन एक घंटे के बाद वह पुन: परिवर्तित हो सकता है लेकिन आचार के माध्यम से स्वत: जो परिवर्तन आता है वह ऐसा स्थायी परिवर्तन हो जाता है कि पुन: उसके लिए संबोधन की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि वह अहिंसा के चरण चिहों की गंध हुआ करती है। आप लोगों को ढूँढ़ने की आवश्यकता है। अभी राम के चरण चिह्न कहाँ-कहाँ पर पड़े हुए हैं? ढूँढ़ने की आवश्यकता है कि राम कहाँ-कहाँ से चलकर चले गये हैं?

     

    सुनते हैं भारत वर्ष में राम का यत्र-तत्र विचरण हुआ है। जंगल में एक- एक कण में उनके वह संस्कार आज भी पड़े हैं और सिद्ध क्षेत्रों की वंदना हम जब करते हैं और पुनीत पावन क्षेत्रों का दर्शन जब हम करते हैं तो हमारे भीतर सोयी हुई जो चेतना है वह उठने को वाध्य हो जाती और उसके ऊपर ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि हमारे जो तात्कालिक आचार-विचार जो गंदे हैं वे अपने आप शान्त हो जाते हैं।

     

    लेकिन यह ध्यान रखिए-विचारों में साम्यता लाइये। पक्ष और प्रतिपक्ष को गौण करके चलिए और सही अहिंसा की राह पर चलने का प्रयास कर लीजिए, निश्चत रूप से आपका कल्याण होगा। राम की कथा ही नहीं सुनना है बल्कि राम की व्यथा को पहचानना है। शरणागत वत्सल के आदशों को जीवित रखना है तथा विभीषण के आदशों को भी आज जीवित रखने की आवश्यकता है। विभीषण की नीति थी कि यदि राजा अन्यायी हो तो उसको छोड़कर न्याय पक्ष में हो जाना चाहिए। सत्य के समर्थन के लिए भाई को भी छोड़ा जा सकता है।


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