अनंत काल से मानव की यात्रा जारी है किन्तु मंजिल नहीं मिल रही। जिस यात्रा से मंजिल न मिले वह भटकन है तथा आज भटके मनुष्यों का बहुमत है। सब भटके हुए है इसलिये यह ज्ञात नहीं हो पा रहा कि मंजिल विहीन यात्रा जारी है। भटकन समाप्त होने के लिये आवश्यक है, यात्रा तो हो किन्तु सही दिशा में सरिता की उस बूंद के समान जो अनंत सागररूपी मंजिल प्राप्त कर लेती है। ऐसी यात्रा से भटकने पर विराम लगता है तथा प्राप्ति होती है मोक्ष की। ऐसा कोई पशु नहीं सुना जो चलतेचलते रास्ते में भटक गया हो और कोई ऐसी नदी नहीं सुनी जो मंजिल तक न पहुँच कर बीच में ही सूख गई हो किन्तु मनुष्य हमेशा भटकता रहा है। प्राणी समुदाय में सर्वाधिक भटका प्राणी मनुष्य है। नदी उद्गम से यात्रा प्रारंभ कर सागर में जा मिलती है बीच में रुकती नहीं है। पक्षी भी अपनी मंजिल को प्राप्त करने के लिये उड़ान भरता है किन्तु मनुष्य भटक जाता है। हमारी प्रत्येक क्रिया उन्नति की प्रतीक नहीं है। बोलते समय हम कितने ही निरर्थक शब्दों का प्रयोग करते हैं, प्रत्येक सोच सार्थक नहीं होती तथा प्रत्येक कदम सही दिशा में नहीं उठता। कितना सोचना है, बोलना है, चलना है, यह यदि उचित अनुपात में नहीं होता तो समझ लो भटकन है। जो क्रियायें मंजिल की तरफ नहीं ले जाती वह भटकन की कारक हैं।
सागर तक पहुँचना नदी का लक्ष्य है। यदि कोई नदी स्वयं नहीं जा पाती तो अन्य नदियों से मिलकर सागर प्राप्त कर लेती है। जन्म से कोई नदी बड़ी नहीं होती, बीच में अनेक नदियाँ मिलती जाती है जो बड़ा रूप धारण कर लेती है और वह मिल-मिलकर सारा जल जा मिलता है अपनी मंजिल सागर से। सरिता की एक-एक बूंद का लक्ष्य रहता है समुद्र।
बूंद-बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाय।
सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाय॥
बूंद, बूंद से मिलती है तो जल में गति आ जाती है। एक बूंद दूसरी बूंद को स्पंदित कर यात्रा करती है। जब आँत स्पंदित होती है तभी भोजन की यात्रा पूर्ण होती है, बीच में रुक जाये तो परिणाम भयंकर हो जाता है। भोजन की यात्रा पूर्ण होने पर ही निकले, इससे जीवन चलता है। भोजन की यात्रा पूरी होने पर ही परिणाम अनुकूल निकलता है। जल में गति तब आती है जबकि एक बूंद दूसरे को धक्का दे और तभी वह परस्पर मिलकर सागर का रूप धारण कर विराट हो जाती है। बूंद-बूंद से सागर है तथा बूंद-बूंद में सागर है।
मनुष्य यदि कर्तव्यनिष्ठ हो तो सही दिशा में उठे हुए एक कदम से वह महात्मा बन जाता है। आवश्यकता है सही दिशा की। यह अपने आप ज्ञात नहीं होती निर्देशन से ज्ञात होती है किन्तु निर्देशक तो अनंतकाल से निर्देश दे रहा है। फिर भी सही दिशा में कदम नहीं। इसलिये कि बहुमत तो भटकने वालों का है। वह सही दिशा का अनुभव ही नहीं करता वरन् भटकन को ही सही दिशा मान लेता है। माँ बच्चों को, फिर वे बच्चे अपने बच्चों को वर्षों से उपदेश देते आ रहे हैं कि कैसे खायें, कैसे पियें, कैसे चलें, कितना खायें, यह भी बताते हैं कि पेट में थोड़ी जगह बची रहें। जगह नहीं रहेगी तो स्पंदन ही रुक जायेगा किन्तु आज तो मनुष्य मशीन हो गया है। उसके पास सोचने का समय ही नहीं। निर्देशक तो ठीक निर्देश दे रहा है किन्तु हम ही गलत कर रहें हैं। बंधुओं! गलत क्रिया से थकान तो आती है पर मंजिल नहीं आती। मनुष्य का रूप ऐसा हो गया कि महान् बनना था पर विकराल होता जा रहा है। कमियों के संबंध में एक दिन उपदेश देते हैं, सुधार कराते हैं किन्तु दूसरे दिन दस कमियाँ दूसरे प्रकार की आ जाती है। उनके लिये पुन: उपदेश दो। एक उपदेश से ही सार्थक क्रिया की जाये तो कल के उपदेश की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
वर्तमान के आधार पर भविष्य का रूप निर्माण होता है। जिस संपत्ति का संग्रह कर हम भविष्य की सुरक्षा करते हैं वह भविष्य की सुरक्षा करने वाली नहीं। संसार की संपत्ति के संग्रह कर्ता 'सिकंदर' का भी भविष्य खाली हाथ, सिकंदर की अर्थी से उसके दोनों खाली हाथ बाहर थे। हमें अपने पुण्य पर विश्वास कम है, आशा है। अधिक इसीलिये सम्पति का संग्रह ज्यादा है। अभी की श्वांस का विश्वास नहीं फिर कल की आशा क्यों ? आस्था कम आशा अधिक रख कर जीना ही भविष्य की चिन्ता का कारण है। ध्यान रखो! विश्वास अधिक और आशा कम होने पर भविष्य निश्चित होगा। नेतृत्व की भूख आज मनुष्य का स्वभाव बन गई है। वास्तव में स्वामित्व की भावना ही नेतृत्व है और यही भटकन की जनक है। निरन्तर बढ़ती हुई इसी स्वामित्व भावना की वजह से यहाँ प्राणी भिन्न-भिन्न पदार्थों पर अधिकार स्थापित करना चाहता है किन्तु यह पंक्तियाँ भूल जाता है कि-
दुनियाँ में सैकड़ों आये चले गये |
सब अपनी करामात दिखा के चले गये ||
इस भटकन के रहस्य को समझकर इससे बचने का प्रयास करो, मंजिल जरूर प्राप्त होगी।
'अहिंसा परमो धर्म की जय !'