कल कभी आता नहीं, कल की आशा व्यर्थ है। जीवन एक यात्रा है तथा यह लोक कर्मभूमि है। भोगों में रच-पच कर प्राणी लगातार हानि उठा रहा है तथा अनुचित अध्यवसाय का फल प्राप्त कर रहा है। आत्मा का स्वभाव जानना है तथा सुव्यवस्थित जानना ही विज्ञान है।
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जानने के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जानना मूल स्वभाव है। आत्मा के क्षेत्र में जानने को स्वाध्याय कहा जाता है। सही दिशा में ज्ञान की तरफ बढ़ने से, सही अध्यवसाय होता है। विफलता हाथ लगने से मनुष्य निराश हो जाता है जबकि विश्वास से ओत-प्रोत चींटी भी पर्वत पर चढ़ जाती है। ऊँची दीवार पर चढ़ने का यत्न करते हुए वह बार-बार गिरती है फिर भी प्रयास कर अंत में सफल हो जाती है। चींटी अपनी शक्ति उद्घाटित कर चढ़ने का तब तक प्रयास करती है जब तक सफलता न मिल जाये, यही है। चरैवेति-चरैवेति। जब विश्वास नहीं तो प्रयास नहीं, प्रयास नहीं तो सफलता भी नहीं, विफलता है तो निराशा है। प्रमुख है विश्वास जो सफलता की नींव है।
प्रत्येक मनुष्य की अपनी यात्रा है। सबकी यात्रा पृथक्-पृथक् है। जीवन निकल गया, अनन्त काल से निकल रहा है। मनुष्य के रूप में जन्मे। यह जन्म बहुत बड़ी राशि के रूप में प्राप्त हुआ है किन्तु जब जा रहे है तो क्या हाथ में है? राशि लेकर आये तथा कर्ज लेकर गए यही क्रम जारी है। हानि ही हानि। एक छोटा-सा दृष्टांत है कि एक गाँव से तीन व्यक्ति निकले बराबर राशि लेकर। तीनों ने व्यापार कर धन कमाने के लिए अलग-अलग रास्ते पकड़े इस वायदे के साथ कि पाँच वर्ष के अंतराल के पश्चात् इसी स्थान पर पुन: मिलेंगे। पाँच वर्ष व्यतीत हो गए तीनों अध्यवसाय पुरुषार्थ प्रयास कर वहीं मिले। दो ने एक से पूछा, भैया! क्या लाये? क्या बतायें? हानि हो गई, जो लाये थे वह भी डूब गया। दूसरे ने बताया कि न कुछ कमाया न खोया जितनी राशि ले गए थे उतनी ही है। तीसरे ने बताया भैया! मुझे तो बहुत लाभ हुआ इतना कमाया कि रखने को स्थान नहीं। आज हमारा अध्यवसाय प्रथम व्यक्ति की भांति है जो लाया वह भी गाँवा दिया। कमाने वाला जानता है कि कितनी शक्ति से कमाया जाये इतना कमा सकते हो कि रखने को जगह न रहे। ज्ञान के मार्ग पर अध्यवसाय कर कई गुना कमाई करने वाले ने पूर्ण व्यवसाय कर लिया। गँवाने वाले का आवागमन क्रम जारी है। राशि बनी तो मनुष्य का जन्म लिया कर्ज में डूब गए, फल भोगा तीन गतियों के रूप में। आप देखिये! एक भिक्षुक भी अध्यवसाय कर रहा है। सुबह से शाम तक देखा कि झोली भरी कि नहीं। भर गई तो ठीक है अन्यथा वह गली, ग्राम तक बदल देता है कि यहाँ लाभ नहीं है। इतना ज्ञान तो वह रखता ही है कि जिस गली, ग्राम में लाभ नहीं उसे छोड़ दो, किन्तु मनुष्य देख रहा है कि उसके अध्यवसाय में हानि है, कर्ज में डूबता जा रहा है किन्तु व्यवसाय वही करेंगे आरंभ, सारंभ, भोग। भोग के योग्य सामग्री का बार-बार भोगना है उपभोग। भोग और उपभोग से कर्मभूमि को भी इस इंसान ने भोगभूमि बना डाला। बंधुओं! वह अध्यवसाय करो जिससे आत्मा का विकास हो, कल्याण हो। स्वभाव में ग्रहण करने की क्षमता है। बच्चे अध्ययन करते हैं परीक्षा के समय विद्यार्थी यह अनुभव कर लेता है कि उसे सफलता नहीं मिलेगी तब वह सफल छात्र की नकल करता है सफलता के लिए। परीक्षा में पास होना है। अकल तो है नहीं तो सफल की नकल कैसे? यदि सही दिशाबोध नहीं है। सही दिशाबोध होना आवश्यक है, बार-बार प्रशिक्षण के पश्चात् भी आत्मबोध नहीं क्योंकि आशा अधिक है आस्था कम। आस्था अधिक रखो आशा कम क्योंकि यह आत्मा का क्षेत्र है, आत्मा का अध्यवसाय। आत्मज्ञान महत्वपूर्ण बोध है। दुनियाँ का बोध किया किन्तु आत्मा का नहीं तो वह बोध नहीं बोझ है। इससे आत्मिक शांति मिलने वाली नहीं।
वर्ष में एक आज है तथा ३६४ दिन कल, किन्तु मात्रा अधिक होने पर भी कल का कोई अस्तित्व नहीं कल कभी आता नहीं। व्यापारी दुकान पर लिखता है— 'आज नगद कल उधार'। क्योंकि वह जानता है कि कल कभी होता ही नहीं। व्यापार के क्षेत्र में तो आज का महत्व है, कल का नहीं। अज्ञान दशा में सोया हुआ। आज ही कल का श्रोत है। हमें कल की चिंता है जो कि किसी ने देखा नहीं। आज की चिंता नहीं। वर्तमान में जो सुख का अनुभव नहीं कर सकते वह कल के सुख के लिए चिंतित है। जो कल विश्वास किया था उसका लाभ लिया आज। अत: शांति का अनुभव हो रहा है। कल की चिंता मृग मरीचिका है, झूठे जल की प्रतीति के पीछे भागना मात्र। चिंता तो आज की भी नहीं होना चाहिए। विश्वास है तो दिन भी आयेगा, दिनकर भी। वह आवश्यकता की पूर्ति करेगा। काम करें, कर्तव्य निभायें। एक-एक पल कीमती है, एक-एक पल विकास होना चाहिए। कल की क्या? आज का समय भी सही निकलेगा यह नहीं बताया जा सकता। घड़ी देखी, जब तक समय बताया घड़ी के कटे आगे सरक गए। आज की निर्भरता कल पर नहीं है वरन् अज्ञान दशा में सोये आज पर कल निर्भर है। सुख वही है जो बाहर से नहीं, आत्मा में उत्पन्न हो। वास्तव में आत्मबोध का नाम ही सुख है।
दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान |
कहीं न सुख संसार में, सब जग देखो छान ||
तृष्णा के वशीभूत होकर धनाढ्य व्यक्ति भी दुखी है। मृग की भांति मरीचिका के पीछे दौड़ रहा है। हमने धन की लिप्सा में अपना मौलिक जीवन खो दिया। पदार्थ के विकास में नहीं परमार्थ के विकास में सुख छिपा है, यह विश्वास रखो! आस्था रखो। इसी आस्था और विश्वास के सहारे हम अपने पुरुषार्थ को सही करें तो निश्चित ही हमें सुख मिलेगा। जो आज तक नहीं मिला।
‘महावीर भगवान् की जय !'