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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सर्वोदयसार 2 - एकत्व भावना ही आनंद की जनक

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    धीरे-धीरे फैलती हुई यह बात 'भरत चक्रवर्ती' के कानों तक पहुँच गई कि चक्रवर्ती इतने बड़े वैभव संपत्ति रंगमहलों में रहकर कैसे धर्मध्यान कर पाता होगा। भगवान् की भक्ति करने की तो उसे फुर्सत ही नहीं मिलती होगी। सारी बात को सुन-समझकर चक्री ने उनमें से एक मुखिया को बुलाया और कहा कि तुम्हें हमारे महल में अन्दर घूमने जाना है और ध्यान रखना! कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या है पूरा देखकर के आना है। जो आज्ञा कहकर वह जाने लगा-चक्रवर्ती बोला, इस तेल से भरे कटोरे को भी साथ में ले जाओ किन्तु इतना ख्याल रखना कि एक बूंद तेल भी न गिर पाये इसका अन्यथा ये तलवारधारी भी आपके साथ जा रहे हैं। शीघ्र ही पूरा महल घूमकर मेरे पास वापस आओ। चक्रवर्ती की शर्त और साथ में चलती तलवार देखकर उसके होश ही उड़ गये।


    महलों में पूरा घूमकर वह वापस आ गया, पूछा! क्यों ? क्या-क्या देखकर आये हो, कुछ बताओ। कटोरा नीचे रखते हुए उसने कहा राजन्! घूमा तो पूरा महल, पर देखा कुछ भी नहीं। हर समय तेल से भरे कटोरे पर ही ध्यान केन्द्रित रहा कि कहीं एकाध बूंद गिरी तो साथ में मौत ही चल रही है। राजन्! क्षमा करें मुझे सारी बात समझ में आ गई। बंधुओं! यह छोटी-सी कथा ही नहीं किन्तु एक ज्ञानी के जीवन की कथा है। जिसने इस संसार में मौत की अनिवार्यता समझ ली है फिर वह संसार की क्षणभंगुरता में रचता-पचता नहीं है। उसे सदा ही अपने कर्तव्य का ध्यान बना रहता है। यह उदाहरण भरत चक्रवर्ती के सम्बन्ध में दिया जाता है, भले ही उसका जीवन विरत नहीं था किन्तु तत्व ज्ञान से उनके जीवन में उदासीनता तो रही होगी। हमें भी जीवन मिला है, मन-वचन-काय की शक्तियाँ मिली है, इसका उपयोग हम कैसे करें, इतना ज्ञान होना जरूरी है। इनके उपयोग व दुरुपयोग पर ही हमारा जीवन पुण्य-पापमय बनता है। वचन-काय को तो फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है किन्तु मन की दशा बड़ी विचित्र है, इसे सम्हालना बहुत ही कठिन है। कठिन जरूर है पर असम्भव नहीं। अभ्यास और वैराग्य के बल पर इसे कंट्रोल में रखा जा सकता है।


    सारे धर्म त्याग पर ही टिके हुए हैं, राग की नींव पर कोई भी धर्म टिक नहीं सकता। हम इस रहस्य को समझे और राग की भूमिका से ऊपर उठने का प्रयास करें। मेरे तेरे पन का भाव और पर पदार्थों में ऐक्य बुद्धि ही आकुलता/अशांति की जनक है, संसार में दुख की कारण है। एकत्व भावना सुख की मूल है, यही एक भावना ऐसी है जो विश्व में और आत्मा में शांति ला सकती है। यह धर्म की ही बात नहीं किन्तु बाहरी व्यवहार जगत् में भी इसका बहुत महत्व है।


    इस बाहरी एकता में भी विचारों की एकता अपने आपमें बहुत कुछ महत्व रखती है। यदि हमारे विचारों में एकता है तो हजारों व्यक्ति भी एक ही हैं, सुखी है। विचारों की विविधता द्वन्द और वैमनस्यता की जनक है, दुख संघर्ष की मूल है। जितने भी मत-मतान्तर बने हैं इस धरती पर वे सारे वैचारिक मतभेद के कारण ही बने हैं, किन्तु सारे मत-मतान्तरों में समन्वय और समाधान देना जैन दर्शन की मुख्य विशेषता है।


    यह संसार बहुत बड़ा है, यहाँ पर सब कुछ है लेकिन हमें क्या करना है, और कैसे रहना है? यदि इतना याद रख लिया जाय तो अपना कल्याण हो सकता है। चक्रवर्ती का जीवन एक आदर्श श्रावक का जीवन था, जो सब कुछ करते हुए भी अपने धर्म-कर्तव्य को नहीं भूलता था। नवनिधियाँ, चौदहरत्न, ९६ हजार रानियाँ, अपार वैभव, सब कुछ रहते हुए भी भगवान् की भक्ति और विषयों में उदासीनता, बहुत दुर्लभ है इस तरह का जीवन पाना। चक्रवर्ती के सामने है ही क्या, आप लोगों के पास, फिर भी उसी में उलझे हुए हो। राम और रावण का इतिहास सभी जानते हैं दोनों में अन्तर इतना ही था कि रावण पर वस्तु पर भी दृष्टि रखता था जबकि राम अपनी वस्तु की सुरक्षा। रावण की यही दृष्टि अशांति और संघर्ष का कारण बनी। समय आपका हो रहा है, हमें यही समझना है कि अपनी वस्तु क्या है और उसकी सुरक्षा हम कैसे करें ? जड़ पदार्थों के बीच रहकर भी हम चेतन आत्मतत्व को न भूलें। हमारे पास विचारों में एकता और विशाल दृष्टिकोण हो तो आज भी वह राम राज्य आ सकता है, फिर बाहरी अन्तर कोई ज्यादा महत्व नहीं रखेगा।


    ‘महावीर भगवान् की जय!'


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