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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आदर्शों के आदर्श 12 - जयंती से परे

       (1 review)

    महावीर ने किसी बात पर अपने जीवन को बाँधा नहीं था। महावीर का जीवन तटस्थ नहीं किन्तु आत्मस्थ था, हाँ......स्वस्थ अवश्य था। वह तटस्थ नहीं था, किन्तु तट के बीच में बहने वाली गंगा थी। तटों को बाँधने वाला महावीर नहीं था। तट उस महावीर को चाहते थे।

     

    महावीर भगवान् उस जन्म को इष्ट बुद्धि से नहीं देखा करते थे। आप लोगों को जो पसंद आ रहा है वह सब महावीर को नापसंद था।

     

    दुनियाँ की ओर मत देखो अपने आप की ओर देखो। महावीर ने कभी भी दुनियाँ की ओर दृष्टिपात नहीं किया, यदि किया है तो दुनियाँ के पास जो गुण हैं, उनको लेने का प्रयास किया। महावीर में अपने आप को देखो, अपने 'मैं' को देखो, महावीर में।

     

    कौन कहाँ से आया है, आया है तो उसे जाना होगा और जाना है तो कहाँ जाना है? हम आने की बात करते हैं और आने की बात महोत्सव के रूप में करते हैं बहुत मुस्कान के साथ, उसे बहुत प्रेम के साथ, लाड़ प्यार के साथ अपनाते हैं। और उसे अपनाते समय उस दफन का और उतार करके उस कफन का हम ध्यान नहीं करते। कोई आज आया है तो जाने को लेकर आया है.महाराज भी आये हैं तो.....। ध्यान रखना ! इस बात को आप समझ लें, तो महावीर बन जायेंगे.। पर आपको महावीर नहीं बनना है इसलिये आप इसे याद नहीं करते।

     

    महावीर ने किसी बात पर अपने जीवन को बाँधा नहीं था। महावीर का जीवन तटस्थ नहीं लेकिन स्वस्थ अवश्य था वह तटस्थ नहीं था। किन्तु तट के बीच में बहने वाली गंगा थी। तटों को बाँधने वाला महावीर नहीं था। तट उस महावीर को चाहते थे। एक तथ्य है, एक भावना है, जो जाने के साथ लगा हुआ है। जो व्यक्ति निशा में उस ऊषा का दर्शन करता है और उस ऊषा में निशा को खोजता है, देखता रहता है। आना है उसके साथ जाना भी है यह जानना भी अनिवार्य है। महावीर जानते थे और पहचानते थे कि आना है तो अभी एक बार जाना है। और यह आना सार्थक इसलिये नहीं है, कि आने के साथ जाना लगा हुआ है। महावीर जाने का मार्ग नहीं पूछते थे लेकिन जाने के मार्ग को दृष्टि में रखकर आते थे। मैं महावीर भगवान् का उपासक हूँ। आप भी हैं, लेकिन आप जाने को भूल जाते हैं। आने और जाने में एक जो सहजता है, वह महावीर भगवान् का जीवन था क्योंकि वह एक बुद्ध थे, एक विचारक थे, एक चिन्तक थे, वह एक पहलू के बारे में चिन्तन करते थे। जो हुआ उसके बारे में उनका कोई चिन्तन नहीं चलता था, जो होने वाला है उसके बारे में अवश्य चिन्तन होता था। आप जैसे वृद्धों का हुए के बारे में जो चिन्तन होता है वह अज्ञानता से कुछ ही दिनों में चिन्तायुक्त हो जाता है। या यूँ कहना चाहिये कि उसका जीवन निस्सार मय बन जाता है। अर्थहीन हो जाता है। जिसमें कुछ पाने की, कुछ होने की, गन्ध नहीं है जैसा कि फूल (Fool), तो Fool नहीं, Full फुल होना चाहिए। फूल को 'क्या बोलते हैं अंग्रेजी में? फूल (Fool) का अर्थ मूर्ख होता है, और फुल (Full) का अर्थ भरा हुआ, जीवन भरा हुआ हो। हमारा एक पहलू निकल गया, दूसरा जो आने वाला पहलू है, उसके द्वारा ही हम अपने जीवन को भर सकते हैं। जो निकल गया वह खाली हुआ लेकिन भरेगा तो वह आने वाले के द्वारा ही। लेकिन यह ध्यान रखें.आना जब तक जाने के साथ सम्बन्ध को नहीं रखेगा तब तक वह परिपूर्ण नहीं बन सकता यह वस्तु का परिणमन है। जो कि वैकालिक सत्य है, यथार्थ है। महावीर कभी मंगल गीत से, स्वागत से प्रभावित नहीं हुए, क्योंकि वह समझते थे कि...........

     

    "जिन्दगी एक काँच का प्याला है, जो हाथ से छूट गया।"

    क्या मायना? क्या अर्थ निकाला? जिन्दगी कुछ है.......हाँ है, क्या है? वह एक काँच का प्याला मात्र, जो हट गया तो क्या रह गया? कभी भी, अभी भी तैयार रहिये, जाने के लिए। आने के लिए आपको बहुत साथ देने वाले हैं लेकिन जाते समय साथ कौन देता है पता है......पता है ? जिसने आप को प्रेम के साथ, लाड़ प्यार के साथ बहुत मैत्री के साथ, अपनाया था। वह आपको दफनाने के लिए और कफन उतारने के लिए वहाँ तक जाता है। ध्यान रखिए.......संसार की रीति, संसार का स्वार्थ, संसार का स्वभाव, संसार का परिणमन, सिर्फआने वाले का साथ देता है, जाने वाले के साथ कोई नहीं जाता। आने के लिए तैयार हैं। महाराज......खुरई में आने की बात करो, जाने की नहीं। तो भइया,.....आने की बात तो हो गई। अब रही कौन सी, बता दीजिये? आने को तो आ गए, उसी समय लग जाता है भीतर.क्या पता महाराज कब जाते हैं? जाने के लिए तो मन नहीं है आपका, लेकिन जब आने का पता नहीं था। उसी प्रकार सीधी साधी बात है। जब कई बार नारियल चढ़ाये गये, फिर भी कोई पता नहीं था। जब आ गए तब विश्वास हुआ। तो उसी प्रकार जाने का भी कोई भरोसा नहीं रखना चाहिए कि कब जाते हैं? और इसमें जब आप गूढ़ता से सोचेंगे तो महावीर का जीवन क्या था? और ऐसा क्यों था? यह सब रहस्य खुल जायेगा।

     

    एक लेख पढ़ा था, जो कि बहुत मार्मिक था। उसमें पूरा पूरा अध्यात्म भरा हुआ था। यदि आप लेना चाहें तो, नहीं तो नहीं.....क्या था? एक लाड़ली प्यारी लड़की थी अपने माता पिता की एक ही थी। लाड़ प्यार के साथ पाली पोसी थी। तन उसका सुन्दरता की मूर्ति था सब कुछ था कमी कुछ भी नहीं थी और वह युवती हो गई। जीवन जवानी की ओर बढ़ रहा है। माता पिता ने सोचा कि इसके लिए योग्य वर की आवश्यकता है। किसी प्रकार बहुत मेहनत परिश्रम के उपरान्त उसके अनुरूप उनको वर मिला। सब चले वहाँ......शादी में लीन थे। वह अवसर, वह तिथि, वह मंगल बेला आई.फेरे पड़ रहे हैं। वह मेंहदी भरा हाथ, ओठों पर लगी हुई लाली, वह भाल पर लगा हुआ कुमकुम का तिलक शोभित हो रहा था। सारी की सारी तैयारी थी वह मंगल बेला बहुत ही आनन्ददायक लग रही थी किन्तु क्या था? सात फेरे और सात तत्व हुआ करते हैं, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। ज्यों ही सातवाँ फेरा पड़ा त्यों ही वर मुक्त हो गया! आपको अच्छा नहीं लग रहा है। जब सुनने में अच्छा नहीं लग रहा है, यदि ऐसा घट जाये तो? यह घटना घटी हुई है इसलिए बता रहा हूँ। सातवाँ फेरा ज्यों ही पूरा हुआ कि वह दूल्हा वहीं पर गिर गया। सारे के सारे लोग हाहाकार मचाने लगे कि क्या हो गया? और उसी समय किसी ने रिकार्ड लगा दिया।

     

    राजा राणा छत्रपति, हॉथिन के असवार।

    मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार||

    किसी ने कहा अरे! भाई यह क्यों लगा रहे हो? वह बोला सही लगा रहा हूँ। जब जा ही रहा है अपनी-अपनी बार, उसकी बारी आ गई, उसका समय आ गया, उसकी बेला आ गई। वह बन्धन......बन्धन नहीं था वह बन्धन के उपरान्त मुक्ति थी। कौन कहाँ तक निभा सकेगा कौन उस मंगल बेला को अन्त तक निभा सकेगा? संभव नहीं। समय समय पर गुजरना। कोई भी द्रव्य, कोई भी वस्तु, कोई भी पदार्थ कोई भी परिणति, कोई भी घड़ी! वह टिकी हुई नहीं रह सकती। गंगा बहती रहती है। टिक जायें तो तालाब हो जाये और वह गंगा नहीं मानी जा सकती, वहाँ कोई भी स्नान नहीं करेगा। कोई भी वस्तु रुक जाये तो वह वस्तु नहीं मानी जाती। यदि महावीर रुक जायें तो वह महावीर, महावीर नहीं हैं। महावीर तो सतत बढ़ते जा रहे हैं इसलिए उनका नाम रखा वर्द्धमान, आपने नहीं रखा.....वह अपने आप में वर्द्धमान थे प्रत्येक वस्तु वर्द्धमान है, आगे बढ़ती रहती है, पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं उठता। पीछे मुड़कर देखने वाला अज्ञानी माना जाता है। जिसे पीछे का हिस्सा अच्छा लगता है उसको भविष्य में जो घटना घटने वाली है, उसका संवेदन सम्भव नहीं, क्योंकि वर्तमान खो जाता है। महावीर खो जाने वाले नहीं थे। वे मौजी थे, वे खोजी थे, किन्तु! वे पीछे मुड़कर देखने वाले नहीं थे। कितना भी आप चिल्लाओ उन्हें बुलाओ वह लौटकर आने वाले नहीं हैं। उनका समय आगे के लिए है पीछे के लिए नहीं। उनका समय मुड़न शील नहीं बढ़न शील है, अतीत में था और आगे भी रहेगा। यह वैकालिक सत्य है। आप वस्तु तत्व को समझने की चेष्टा करो। वहाँ पर उस मंगल बेला में इस प्रकार की घटना घटती है तो वहाँ पर जो वृद्ध होगा, जो ज्ञानी होगा वह विचार अवश्य करेगा कि घटना घट गई तो घट गई, हो गया तो हो गया। अभाव सो अभाव। अब वह भाव में परिणत होगा ही नहीं। घटी हुई घटना के बारे में किसी का कोई बस नहीं चल सकता। जो मुड़ गया सो मुड़ गया.....चला गया.....सो चला गया। वह अतीत......कभी भी भविष्य नहीं बनेगा। उसमें अब कुछ होने की गुंजाइश नहीं। आप कुछ चाहते हैं! क्या चाहते हो? जो कुछ हो रहा, उसको जानना चाहो, तो बहुत अच्छा है। चाहेंगे तो उसे पकड़ने का प्रयास अवश्य करेंगे, उसको स्थिर बनाने की चेष्टा करेंगे। जो न भूतो, न भविष्यति। जो ज्ञानी थे, अपने आप चिंतन की धारा में बहने लगे, प्रभावित होने लगे। अब उनके सामने वह पण्डाल, वह मंगलबेला नहीं रही। वह जानते थे कि यह एक दिन होने वाला है। हाथ में जो मेंहदी लगी है, अब उस मेंहदी की महक नहीं आ रही है और हाथ में जो कंगन चूड़ियाँ पहनाई गई हैं, अब वह चूड़ियाँ बेड़ियाँ लगने लगी......पर नव वधू उन्हें तोड़ने का प्रयास कर रही है। अब मृत्यु तो हो चुकी, पति का अवसान हो चुका है। उस गन्ध का, उन ओठों की मुस्कान का अवसान हो चुका है। वह गहरे चिन्तन में डूब गई और अपने अस्तित्व के बारे में सोचने लगी। कितने दिन लगे थे इस मुहूर्त को निकालने में और यह शरीर कितने लाड़ प्यार के साथ पला था, पोसा गया था, कितने व्यक्तियों की मोहक वस्तु बनी थी।उसी वस्तु को आज में इन्हीं आँखों से देख रही हूँ। वह सोच रही है, फिर क्या सोचना? माता पिता सारे के सारे रुदन में लगे हुए हैं लेकिन वह रुदन नहीं कर रही है। भीतर एक भाव.......एक तरंग उठ रही है वह भीतर महावीर के दृश्य को देख रही है। महावीर आया था कहाँ चला गया? महावीर जयन्ती कितने बार मनाई गई किंतु मनाई क्यों जा रही है? क्या आप उसी बालक के रूप में मना रहे हैं, क्या आप उस ही पहलू के बारे में सोच रहे हैं, आप क्या आज के जीवन के बारे में ही सोच रहे हैं? क्या आपके पास मृत्यु के बारे में सोचने की बुद्धि नहीं है, इतना ही ज्ञान है, वस्तु इतनी ही है। सहयोग के साथ वियोग लगा हुआ है, आने के साथ जाना लगा रहता बल्कि वह कनेक्टेड रहता है उस कनेक्टेड स्थिति को हम देख नहीं पाते हैं। वह देख रही है, धीरे-धीरे कंगनों को तोड़ रही है और वह जो भाल पर गुलाबी लाल-लाल तिलक लगा था उसको निकाल दिया, अब वह मात्र कलंक के रूप में था, वह घड़ी मात्र कलंक के रूप में थी। वह जो भाल था, निष्कलंक था उसके भीतर लाल लाल रंग था और वह सोचती है राग का जो समय था वह अब चला गया, अब विराग का समय आ गया। अब सुहाग का समय नहीं......अब सुहाग तो भाग गया। भाग्य जग गया क्योंकि.......अब आज जो बन्धन था, उसी समय बन्धन के साथ-साथ मुक्ति भी मिल गई, उन्हें पर्याय से मुक्ति मिल गई और मुझे अब साक्षात मुक्ति मिलने वाली है। मुझे इस मोह से मुक्ति मिल सकती है, यदि पांडाल वाले चाहें तो.....?

     

    तो कौन क्या कर सकता है? ऐसी भी घटना घट सकती है। यहाँ नहीं घटी . आज नहीं घटी। लेकिन ऐसी कोई प्राचीन पर्याय नहीं, जो घटी न हो। सब कुछ घटी है लेकिन इसके साथसाथ हमारी बुद्धि भी घटी है, हम कुछ सोच नहीं पा रहे हैं। उपाय के साथ अपाय को-भी सोचना यह विद्वान का कार्य है। यदि सुख है तो उसके पीछे दुख भी है, अन्धकार है तो ज्योति भी है। हम केवल ज्योति के बारे में विचार करें, नहीं.अन्धकार भी आ जाये तो उसमें भी देखने की शक्ति आनी चाहिए।

     

    महावीर भगवान् का जीवन कहता है कि भैया! अंधकार में जो देखा जा सकता है, वह प्रकाश में सम्भव नहीं। प्रकाश में सुविधा मिल सकती है पर विश्वास नहीं। अविश्वसनीय स्थान में आप अकेले हों, सो नहीं सकेंगे। भले-ही आप १० दिन के निन्द्रालू क्यों न हो। और जहाँ पर यह विश्वास हो जाता है कि यहाँ पर सब प्रकार की सुविधा है आराम है। जहां पर किसी भी प्रकार का डर न हो वहीं पर आपकी नींद आ जायेगी। अजगर की नींद ले जाओगे आप.....यह क्यों? और वह क्यों? महावीर भगवान् के प्रकाश के माध्यम से आप अपने जीवन को प्रकाशित करना चाहते हैं ‘न भूतो, न भविष्यति'। एक बल्ब जल गया तो दूसरा जल जाये यह कोई नियम नहीं......कनेक्शन पहले आवश्यक है। आपके पास कनेक्शन नहीं, यदि है तो केवल वायर है, पर उसमें करेन्ट नहीं, यदि करेन्ट भी है तो आपको बटन दबाना नहीं आता और यदि बटन दबाना भी सिखादें तो आप कहते हैं कि महाराज हमारा मन नहीं होता। अब स्थिति आप लोगों की यह है, क्या करें? सब कुछ फिटिंग तो हो चुकी है लेकिन आपकी इच्छा नहीं है। भगवान् महावीर के उपासक मात्र कहने भर के लिये हो। आपने कभी सोचा है कि जीवन के साथ मृत्यु, दुख के साथ सुख आने के साथ जाना, ऊषा के साथ निशा, यह सब कुछ एक जुड़न है। जीवन भी एक जुड़न को लेकर चल रहा है। प्रत्येक पदार्थ का परिणमन जुड़न के साथ है, एक के साथ चल नहीं सकता वह धीरे धीरे। वर चला गया लेकिन वह वधू घबराती नहीं है। मेंहदी में से अब गन्ध नहीं आ रही है, उस तिलक में से अब सौभाग्य नहीं झलक रहा है, मंगल-सूत्र टूट गया है, बंधा ही नहीं टूट गया.........कैसी विचित्रता कैसा अद्भुत परिणमन! फिर भी किसी का ध्येय नहीं होगा चिन्तन करने का कि वह संयोग उतना ही था। नहीं.नहीं कोई बात नहीं, वह इतना ही था लेकिन अभी जीवन तो बहुत है, इसीलिए आप लोग क्या सोचते हैं? क्या क्या विचार करते हैं? बहुत कुछ विचार कर जाते हैं। वह हो या न हो, लेकिन मन तो चिन्तन कर ही जाता है भइया यह तो ठीक नहीं है ऐसा कैसे हो गया? हो गया कोई बात नहीं, ऐसा तो होता ही रहना है, यह तो संसार की रीति है। इतना सुकुमार जीवन है ऐसा थोड़े ही होता है। ऐसा नहीं सोचना चाहिये, अभी बहुत दिन हैं बेटा। आप लोग ऐसा कहकर ऐसी घटनाओं से प्राप्त वैराग्य के क्षणों को यूँ ही...........लापरवाही के साथ टाल देते हैं।

     

    मालूम है आपको। नेमिनाथ भगवान् के बारे में क्या किस्सा निकला था? आप लोग ताज्जुब करेंगे नेमिनाथ भगवान् की शादी कब हुई थी? हुई से मतलब आधी जो कुछ भी हुई थी? हाँ.......कब गये थे? आप लोगों के यहाँ शादी के जो मुहूर्त निकलते हैं वह श्रावण में नहीं निकलते। समझ में आ गया मुझे श्रावण में क्यों नहीं निकलते। जबकि नेमिनाथ के जमाने में श्रावण में शादी होती थी और नेमिनाथ भगवान् की बारात जूनागढ़ लेकर गये थे। आप लोगों ने सोचा, बहुत अच्छे चिन्तक हो आप! जब नेमिनाथ भगवान् जैसे पुण्यशाली के जीवन में विवाह सम्बन्ध छूट सकता है और इतना पुण्य अपना तो है ही नहीं, इसलिए श्रावण में शादी बन्द करो। धन्य हो भगवान्! आप लोग सोचते हैं, लेकिन राग के बारे में, विराग के बारे में नहीं सोचा करते। उस तिलक को देखते हो लेकिन तिलक के अभाव में वह भाल देखो तो सही, कितना विशाल लगता है। अब वह राग नहीं विराग आ गया। अब सुहाग तो भाग गया, लेकिन भाग्य जाग गया। वह मन ही मन सोच रही है कि नीचे पैरों में पहने हुए नूपुर और सारी की सारी रंग बिरंगी दुनिया से सम्बन्ध समाप्त करो। अपने ही हाथों से दूर करके वह पांडाल में कह देती है कि अब आपका और मेरा कोई संबंध नहीं है। आज से मैं अपने अस्तित्व को बस त्रिलोकीनाथ प्रभु महावीर के चरणों में अर्पित करती हूँ। और वैराग्य से ओत-प्रोत वह शरण-हीन कन्या भगवान् महावीर की उपासिका बन जाती है। महावीर कह देते हैं कि बेटा अब तुझे शीघ्र ही संसार से छुटकारा मिल जायेगा क्योंकि तुम्हारे पास तत्व चिन्तन की दृष्टि है, वस्तु को पकड़ने की दृष्टि है, तुम जानती हो कि वस्तु का परिणमन कैसा होता है। तुम जानती हो कि कौन आया था और कौन गया, किधर से आया था और किधर गया। वह आया भी नहीं है गया भी नहीं है, जिया भी नहीं है, मरा भी नहीं है, केवल एक आवरण था जो इधर का उधर हट गया। वह तो मृत्युंजयी हमेशा बना रहता है क्योंकि आत्मा की मृत्यु नहीं है। कृष्ण, अर्जुन के लिए सम्बोधित कर रहे हैं। यह कारिका गीता में आती हैं, कृष्ण क्या कहते हैं, देखो -

     

    जातस्य मरणं ध्रुवं, ध्रुवं जन्म मृतस्य च

    तस्मात् हे! मध्यम पाण्डवः मा शोचनीय ।

    अर्जुन तू क्या पागल बन गया? जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु की गोद में जाना होगा, जिसने मृत्यु पाई है उसे जन्म के झूले में झूलना होगा। यह संसार की रीति है।.....यहाँ पर डरने की कोई आवश्यकता नहीं......। जो आता है वह जायेगा, जो जाता है वह आयेगा, आना जाना बना रहता है। हे अर्जुन! इस रहस्य को जान करके कर्तव्य पथ से च्युत नहीं होना। कोई भाई नहीं है, कोई बहिन नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई शिष्य नहीं। कर्तव्यपालन ही तुम्हारा धर्म है। अर्जुन कहता है कि प्रभो! यदि गुरु भी गलत काम कर रहे हैं तो भी उनके ऊपर धनुष तीर चलाना कैसे संभव है? कृष्ण कहते हैं- अर्जुन तू बिल्कुल भयभीत हो गया. द्रोणाचार्य इस समय द्रोणाचार्य नहीं है वह गुरु नहीं है क्योंकि वे पक्षपात कर रहे हैं। और यदि तू मोहाक्रान्त होकर, बहाना बनाकर, रणांगन से डरकर भागना चाहता है तो तुझे कदापि उस परम बोधि-ज्ञान का मार्ग नहीं मिलेगा क्योंकि, कहावत है -

     

    जो कम्मे शूराः सो धम्मे शुराः।

    जो कर्म में शूर है वह धर्म में शूर है। जो कर्म में शूर नहीं है वह धर्म में शूर कैसे हो सकता है? जो घर में ठीक ठीक काम नहीं कर रहा है तो क्या संन्यासी होने की क्षमता उसके पास है ? तू कर्तव्य पथ से च्युत हो रहा है। तेरे लिए इस रणांगण में संबोधन की आवश्यकता है और कृष्ण जी भी सम्बोधित कर रहे हैं। मरना और जीना तो लगा हुआ है यह समझने की बात है। यदि आत्मा को पाना चाहते हो तो अर्जुन! मेरी बात मान ले। इसको गुरु गुरु न मान.....भाई भाई न मान......माता माता, पिता पिता न मान.......क्योंकि ये मोही हैं, ये स्वार्थी हैं.......ये क्या चाहते हैं? ये आत्मा को नहीं चाहते, धर्म को नहीं चाहते, वस्तु तत्व को नहीं चाहते, ये तो धर्म को अपने अनुरूप बनाना चाहते हैं। ये तो कर्तव्य को भी अपने अनुसार चलाना चाहते हैं, ये आत्मा को संसार में रुलाना चाहते हैं।

     

    जो चले वही कर्तव्य......जो कहे वही कथन.......जो दिखे वही दृश्य हो ......ऐसा नहीं होता, किन्तु वस्तु का दृश्य अपने आप में रहता है। हम अलग प्रकार से उसे देखने की चेष्टा करें। हमारे पास वह ज्योति आ जाये, हमारे पास वह चेष्टा आ जाय जिसके द्वारा हम ज्यों का त्यों उस वस्तु के दृश्य को देख सके।

     

    वस्तु को आप देखना चाहते हो, जीवन को यदि परखना चाहते हो, यदि कोई रहस्य है......उसे उद्घाटित करना चाहते हो तो किसी भी एक बात पर अड़ करके नहीं रहो। जन्म की आप जय जय कार करने वाले मृत्यु के सामने जाकर देखेंगे तो आपके घुटने टिक जायेंगे। जो हमेशा मरण के साथ जीता रहता है और मरण को जीने का एक प्रकार से दृश्य दिखाता है कि जीवन यह होता है।

     

    जो व्यक्ति मरण से डरता जायेगा वह व्यक्ति तीन काल में भी जी नहीं सकता। यह मरण ही हमारे लिए प्रकाश प्रदान करने वाला है और यह भव हमें भव-भव तक भटकाने वाला है। आप जन्म की पूजा नहीं करिये, जन्म संसार का प्रतीक है।

     

    यह ध्यान रखना कि हम साधना के बलबूते मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं और इस अविनश्वर पद को प्राप्त करने वाली वह वस्तु हमारे पास ही है लेकिन हम उसे देख नहीं पा रहे हैं। उसको देखने की आप चेष्टा करिए। वह मंगल ग्रह जहाँ पर कार्य हो रहा था वहाँ से वह साध्वी के वेश में आती है। बिल्कुल पतिव्रता स्त्री के रूप में सफेद वस्त्र के साथ, हाथ खाली है और रची हुई मेंहदी भाग जाती है। सब कुछ श्रृंगार निकल गया बल्कि अब वस्तुत: आत्मा का श्रृंगार प्रारम्भ हो गया ।

     

    महावीर क्या इस जन्म में अटकना चाहेंगे, महावीर क्या आप लोगों के इन गीतों को सुनना चाहेंगे? यदि यह पसंद होता तो वे यहीं रह जाते। आप लोगों का यह आरती उतारना, आकर्षक चेष्टायें करना, तुम्हारा मोह, प्रेम, प्यार उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। सभी नापसंद था। भले ही आप लोग इनके होकर कहें कि महावीर हमें बहुत पसंद करते थे किन्तु यदि महावीर बोलना प्रारंभ कर दें तो इस सभा में कोई भी पसंद नहीं आयेगा उनको, क्योंकि सब लोग जन्म को चाहने वाले हैं मृत्यु से सभी लोग डरकर भागने वाले हैं। मात्र भागने से मृत्यु नहीं छूटेगी। फिर भी हिरन के समान, खरगोश के समान आप भाग रहे हैं। कहाँ तक भागोगे? मृत्यु की गोद में तो आपको जाना ही होगा। रोते हुए मृत्यु की गोद में जाओगे तो वीर के उपासक नहीं कहलाओगे। यदि उसका साहस करके स्वागत करते हो तो फिर वास्तव में आप महावीर के पथ के पथिक कहलाओगे । आल्वेज वेलकम कहते हैं तो आल्वेज वेल गो भी हो जावेगा। आल्वेज वेलकम ही लिखते हैं आप। हम किसी बॉर्डर पर चले जाते हैं तो यू.पी. आ रही है एम. पी. छूट रही है, गुजरात आ रहा है राजस्थान छूट रहा है, महाराष्ट्र आ रहा है। वहाँ पर आप एक ही बोर्ड से दो काम निकालते हैं। क्या कहते हैं? वेलकम, वेल गो कोई नहीं कहता। हमने कहा पुन: पधारिए की अपेक्षा अच्छे पधारे क्यों नहीं कहते? अच्छे पधारे कहें तो बहुत अच्छा लगेगा कोई नहीं कहता। महावीर कहते हैं आपने आइए पहलू तो जान लिया अब जाइये को जाने। जायेंगे तो हम अकेले रह जायेंगे, अकेले हो जायेंगे। महावीर भी अकेले थे। आइये-आइये जब तक कहते रहेंगे तब तक यह झगड़ा चलता ही रहेगा। अकेला होना चाहते हैं आप फिर भी भीड़ को लेकर के जाना चाहते हो। दो की भीड़ में भी सम्भव नहीं है, वह रास्ता बहुत संकीर्ण होता है। वहाँ से एक ही व्यक्ति पास हो सकता है। आजकल तो पुल बन रहे हैं। इधर से कोई आ जाये,उधर से भी कोई आ जाये और फिर एक्सीडेन्ट हो जायें तो नीचे आ जायें। सोचने की भी इतनी फुर्सत नहीं है कि संकरा पुल है और हम निकल जाते हैं। यह सोचो और विचार करो कि वह एकत्व वह अकेलापन महावीर चाहते थे। मुझे कुछ नहीं चाहिए जो है वह पर्याप्त है। जो घट रहा है वही मेरे लिए दृश्य है, वही सब कुछ है। उसके लिए ही मैं हूँ उसके लिए और कुछ नहीं। जो होगा वह सामने अवश्य आयेगा क्योंकि वह हमारा गुण धर्म है स्वभाव है।

     

    हमारे पास जो कुछ आता है वह जाता है उसमें हर्ष विषादादि न करें। आने जाने को एक साम्य दृष्टि से देखें, इस रहस्य को देखने के लिए आँखें चाहिए और ऐसी आँखें चाहिए जिसके ऊपर किसी प्रकार के चश्मा की आवश्यकता नहीं हो, कोई काँच की आवश्यकता नहीं हो केवल रियल होना चाहिए। उस पाण्डाल में जहाँ विवाह हो रहा है, सातवाँ फेरा समाप्त भी हो गया, बन्धन भी हुआ और मुक्ति भी मिल गई। शादी भी हुई और बरबादी भी, वहीं पर एक साथ जीवन का आदि और वहीं पर अन्त। बिल्कुल एक समय में आदि और अन्त दोनों की अनुभूति। यह रहस्यमय जीवन हमें समझ में नहीं आ रहा है। महावीर का आना, आना नहीं था और महावीर का जाना, जाना भी नहीं था। आना और जाना एक साथ होता है और उसी में उनको वह सुगन्धी आती है वह ज्योति मिलती है उस अनुभूति का उस ज्योति का लाभ हमें किसी प्रकार से आज तक नहीं हुआ। उसके लिए आप यदि चाहें तो आज से सोचें कि हम किस दृष्टि से जी रहे हैं और किस चिन्ता में डूबे हुए हैं और हमारी यह चिंता कब हटेगी? हमें वह ज्ञान कब प्राप्त होगा जिसमें आना और जाना सहज रूप से घटित हो रहा है? किसी प्रकार हर्ष नहीं, किसी प्रकार का विषाद नहीं, इस प्रकार का साहस वहाँ के राजा को नहीं था। इस प्रकार का साहस हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता, यह महान व्यक्ति का कार्य है। यह तो मात्र साधु महाराजा का कार्य है।

     

    भगवान् महावीर ने उस जन्म को कभी इष्ट बुद्धि से नहीं देखा करते थे, जहाँ पर देवों ने आकर पंचाश्चर्य व्यक्त किए, सुगंध वृष्टि कर दी, फूलों की वृष्टि हुई, मंद-मंद पवन बहाई और अनेक प्रकार के मंगल गीत हुए पर यह सब पसंद नहीं आया। आप लोगों को जो भी पसंद आ रहा है वह सब महावीर को नापसंद था। कौन-सी वह दृष्टि है, आप लोगों को प्राप्त हो तो बताओ बन्धुओ यह जीवन-जीवन नहीं। जिंदगी आखिर क्या है?‘काँच का एक प्याला है जो हाथ से छूट गया” वह कभी इसी समय हाथ से छूट सकता है, छूटेगा, तो कुछ के नहीं और ध्यान रखना। जिसको आप प्यार के साथ ओठों से लगाकर के दूध पी रहे थे नीचे गिरते ही आप उस पर पैर रखना भी पसंद नहीं करेंगे और पड़ भी जायगा तो आपके पैर लहूलुहान हो जायेंगे। जीवन का अर्थ समझे बिना उसका कुछ भी मूल्य नहीं है जो कुछ भी है उसको हम भविष्य में ढालने का प्रयास करें। भविष्य की कीमत हो सकती है अतीत की जो घड़ियाँ हैं वह सब फैल है, उनका कोई मूल्य नहीं है। मूल्यहीन पदार्थों के बारे में सोचना एक प्रकार से बुद्धि का अपव्यय है। उसके बारे में सोचो मत यही एक मात्र परिणमन है।

     

    महावीर बहाव को सोचने वाले थे, स्वभाव को सोचने वाले थे। हम इस बहाव में बहते चले जाते हैं, लेकिन इस बहाव के स्वभाव को नहीं सोच पाते, मात्र हमारी एक यही कमी है। भगवान् महावीर की इस ज्योति के माध्यम से हमें बस-यही ज्ञान प्राप्त हो जाय......हे भगवान् ! हमें भी वह कैसे प्राप्त हो, तो कहते है |

     

    दिल के आईने में है तस्वीरे यार,

    जरा गर्दन झुकाके देख ले.........।

    दुनियाँ की ओर मत देखो। अपने आपकी ओर देखो। महावीर ने कभी दुनिया की ओर दृष्टिपात नहीं किया। उनको क्या आवश्यकता थी, दुनियाँ से बढ़कर भी उनके पास गुण थे, स्वयं में बहुत सारा भंडार भरा हुआ था, दूसरे से लेने की आवश्यकता नहीं.....। जो कुछ भी अपने भीतर है उसमें उतर करके अपने आपको देखा, निहारा, सुना और कहा, बाहर कुछ भी नहीं है। बाहर तो अनंत काल से देखता आया हूँ। इस जीवन में तो कम से कम शुरूआत, सूत्रपात हो जाये कि मैं अपने आपको निहारूं, अपने आपको जानूँ, पहचानूँ।'क्या मैं कम हूँ? मैं कौन हूँ, क्या मैं छोटा हूँ? क्या मैं बड़ा हूँ? किसी रूप में देखें तो सही मैं कौन हूँ। यह एक मात्र गहराता चला जाय और ऐसी ध्वनि-प्रतिध्वनि निकलती जाय, भीतर ही भीतर। भले आप कान बंद कर दोगे फिर भी वह भीतर ही भीतर प्रतिध्वनित होती चली जायेगी। "हमारे सामने केवल मैं ही रह जाय तो उसमें से अनेक महावीर फूट सकते हैं, अनेक राम अवतार ले सकते हैं, अनेक पाण्डव उसी मैं की गहराई में से जन्म ले सकते हैं। उसी मैं की गहराई में महावीर बैठा हुआ है उसी मैं की गहराई में आप देखो। महावीर का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर महावीरत्व छुपा हुआ है। वह अनंत काल से यात्रा करता आया है, अनंतकाल तक यात्रा करता जायेगा, लेकिन वह धार कभी भी सूखेगी नहीं। राजस्थान में भी चले जाओ, अरब कंट्रीज.....में भी चले जाओ फिर भी वह धारा सूखेगी नही। वह धारा, धारावाहित बहती चली जायेगी। अक्षुण्ण यात्रा आत्मा की मेरे साथ चल रही है, डुबकी लगाने की आवश्यकता है। महावीर कहते है 'मैं' को पहचानो, तू को भूल जाओ। पहचानो कि मैं कौन हूँ? महावीर को पूछो मत, तुम ऐसा कह दो कि मैं कौन हूँ, अपने आप ही मालूम पड़ जायगा केवल देखने के लिये जाओ, दर्पण को कभी आपने पूछा है क्या कि तुम कौन हो? दर्पण कहता है कि मैं को देखो, अपने आपको देखो, अपने को देखो भले ही मुझमें देखो लेकिन अपने को देखो। मुझमें देखने के लिये आओगे लेकिन यह ध्यान रखना कि-मेरा दर्शन तुम्हें कभी हो नहीं सकता। मुझमें देखोगे पर अपने आपको देखोगे इसी का नाम दर्पण है।

     

    दर्पण अपने आपको नहीं दिखाता लेकिन दर्पण में जो कोई भी देखने को चला जाता है उसके मुख को दिखाता है। लेकिन यह देखना दर्पण के बिना संभव नहीं है।]

     

    गुण वश प्रभु तुम हम सम

    पर पृथक हम भिन्न तम

    दर्पण में कब दर्पण

    करता निजपन अर्पण।

    दर्पण में अर्पण करने चले जायेंगे तो अपना दर्शन हो जायगा। महावीर भगवान् में देखो, लेकिन अपने आपको देखो, अपने को देखो महावीर में, महावीर लुप्त हो जायेंगे और अपने आपका दर्शन हो जायेगा, महावीर सामने आ जायेंगे। गुणों की अपेक्षा से महावीर और हम एक हैं, देखने की आवश्यकता है। वह कौन-सी ज्योति है जो हमें आज तक उपलब्ध नहीं हुई है? हे भगवान्! हमें ऐसी बुद्धि, ऐसा उपयोग, ऐसा उत्साह दे दो ऐसी आँखें दे दो, ताकि हम अपने आपको देख सके। महावीर को देखने से हमें कोई लाभ होने वाला नहीं और नहीं देखने से महावीर को कुछ हानि होने वाली नहीं है। किन्तु यदि हम महावीर में अपने आपको देख लेते हैं तो हमें बहुत लाभ होता है। हमारी चेष्टा आज तक ये नहीं हुई है। राम में हम अपने आत्म राम को देख सकते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रत्येक द्रव्य में हम अपने स्वभाव गुण धर्म को देख सकते हैं लेकिन हम उसी को देखते रह जाते हैं और अपने आपको भूल जाते हैं, यह हमारी कमी है। महावीर भगवान् ने इस कमी को निकाली, इसलिये आज की तिथि पर २५०० वर्ष पूर्व जन्म लेकर उन्होंने जन्म से मृत्यु की ओर अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ की और वह यात्रा मृत्युजयी बनकर अनंत में लीन हो गई।

     

    नदी पहाड़ की चोटी से निकलती है, निकलते-निकलते बहुत से कंदरों, मरुभूमियों चट्टानों की गतों को वह पार करती है। नर्मदा की उस नदी को देख लो। वह पहाड़ को फोड़कर चली गई है, वह संगमरमर से कभी प्रभावित नहीं हुई है, संगमरमर को भी चीरती हुई चली गई और कहाँ पर जाकर मिली है, कहाँ पर? भैया ऑकारेश्वर में जाकर शांत हो गई। अपने आपको वहाँ तक ले जा करके रुकी उसी प्रकार आप भी यात्रा करो, लेकिन वहीं पर जाकर के रुकिये ताकि बार-बार की यात्रा बंद हो जाये, संसार परिभ्रमण रूप यह जनम-मरण की वेदना छूट जाये। आत्मा को शरीर धारण करना पड़ रहा है यही एक मात्र दुख है और एक मात्र यदि सुख है तो शरीर से छूटना ही है। जिस प्रकार वह अग्नि वहाँ पर जाकर फेंस गई, अपने आपकी पिटाई करवा रही है। कौन करवा रहा है, अग्नि की पिटाई कौन कर रहा? कौन यह व्यवहार उस बेचारी अग्नि के साथ कर रहा है, लोहार कर रहा है, लेकिन कब तक? जब तक उस अग्नि की संगति लोहे से है। तो लोहे की संगति से अग्नि की पिटाई हुई और अग्नि की संगति करके लोहा मुलायम बन जाता है, चाहे वह कितना भी कड़ा क्यों ना हो? वह स्वयं कड़े (हाथ में पहने वाला कड़ा) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अग्नि की संगति लोहे के लिये अच्छी हो गई लेकिन लोहे की संगति से अग्नि की पिटाई हो रही है। इसी प्रकार इस आत्मा ने शरीर में ऐसे आकर के आवास बना लिया है, जिसकी वजह से आत्मा की पिटाई हो रही है। जड़ की क्या पिटाई? पिटाई तो चेतन की हुआ करती है। पिटाई होने पर भी आत्मा घटी नहीं, मिटी नहीं और बढ़ी भी नहीं लेकिन पिटी अवश्य है और पिटती जा रही है, दृष्टि नहीं है। देखो स्वार्थ परायणता से संसार कहता है कि उसको तो वेदना हो रही है उसको तो भूख लगी है, उसको तो कष्ट हो रहा है। उसकी ओर ना देख कर के इधर मिठाई बाँट रहे है, यह पर्याय दृष्टि नहीं तो क्या है? मेरा जन्म नहीं हो सकता मेरा मरण भी नहीं हो सकता।

     

    ...............जीना और मरना एक प्रकार से शरीर की चेंजिंग है, मात्र परिवर्तन हैं और यह परिवर्तन अनंतकाल से होता आया है, अनंतकाल तक होता चला जायेगा, लेकिन मुझे तो उस रहस्य को समझना है। इस रहस्य को नहीं समझने का कारण है कि सुख-दुख की अनुभूति हो रही है, मैं ज्यादा क्या कहूँ ? आपका समय पूर्ण हो चुका है। आपको आना था यहाँ, आए, अब आपको यहाँ से जाना है (चूँकि जगह आपकी नहीं है)। सब लोगों ने निर्णय किया है कि हमारा काम है और हम बैठ जाये तो कोई आ नहीं सकता और बिठाते-बिठाते जब जगह नहीं मिली तो पीछे खड़े हो गए, जैसे चुनावी भाषण में खड़े होते हैं। अब खड़े हुए हैं। आप लोग यहाँ बैठे हुए हो, रास्ता निकलने को नहीं है...........। इसलिए आप आए हैं, यह आना और जाना तो बहुत क्षणिक है, लेकिन कभी आपने उसे जाने को याद किया है?

     

    जन्म जयंती के दिन भी आपको मृत्यु जयंती मनाना चाहिए, मृत्यु के समय जो घटना घटती है उसके बारे में भी कभी-कभी चिंतन करना चाहिये। विद्वान्, संत, ज्ञानी ऐसी घटनाओं में विषाद का अनुभव नहीं करते किंतु मृत्यु के समय में भी वह तटस्थ होकर के सोचने लग जाते हैं।

     

    जीवन यदि मिला है तो नियम से मिट्टी में मिलने वाला है, उससे पहले इसको कंचन-मय स्वर्णमय बना लें, यह हमारी होशियारी मानी जायेगी। ऐसा कार्य यदि एक बार हो जाये, तो हम महावीर भगवान् के समान बन जायें। हमने एक दृष्टांत आपको दिया, विवाह सम्बन्धी। ऐसी कई घटनाएं घट जाती है मालूम नहीं पड़ता। हम भूल जाते हैं क्योंकि उनसे दुख होता है और दुख होता है तो उसको भूलने की चेष्टा करते हैं और जिससे सुख मिलता है उसको याद करते हैं, यदि याद नहीं आता तो थोड़ा सिर खुजा लेते हैं, ताकि याद आ जाये किसी भी प्रकार से। यदि आप अनंत सुख को अपने आपमें अवगाहित करना चाहते हो तो उसे पाने के लिए वह चेष्टा क्यों नहीं करते, जो चेष्टा महावीर भगवान् ने की थी? जिस से उन्हें यह लाभ मिला कि उनका जीवन था वह अंतिम था उनकी मृत्यु भी अन्तिम थी, माता पिता जो कुछ भी थे वह अन्तिम माने जायेंगे, सब कुछ लास्ट। इसके उपरांत उन्हें इससे कोई मतलब नहीं.......वह जीवन हमारे लिए मंगलदायी है, प्रेरणास्पद है |वह घड़ी आने से पहले हम अपने आपको जागृत कर ले, हम अपने आपको ऊपर उठाने की चेष्टा करले। जैसे स्टेशन पर आप लोग गाड़ी आने से पहले अपने पेटी, बैग, बिस्तर इत्यादि जो कुछ भी सामान है उसको तैयार करके खड़े हो जाते हैं। उस आने वाली गाड़ी की ओर दृष्टिपात करते हैं, क्योंकि गाड़ी नियम से आने वाली है, उससे पहले हम स्टेशन पर न सोयें, लेकिन मजे की बात यह है कि आप इतने निश्चिन्त हो कि स्टेशन के ऊपर भी रेल चली आए तब भी आप सोते रहते हैं।

     

    महावीर भगवान् ने कहा कि चिंता मत करो जो कुछ होता है वह होता रहता है। अरे भैया! होता तो रहता है, बाद में स्टेशन पर ही आपका जीवन रह जायेगा, गाड़ी तो पार हो जायेगी। महावीर भगवान् जैसी अनेक गाड़ियाँ निकल चुकी हैं, पर आप लोग अभी यहीं पर ही बैठे हो, समझ में नहीं आ रहा है। बाहर निकलिये, स्टेशन पर खड़े हो जाइये, खाना पीना जो कुछ भी है......सब......सब कुछ....भले ही खड़े-खड़े खाली, लेकिन दृष्टि मात्र गाड़ी की ही ओर रहे अन्यत्र नहीं। उसी प्रकार मृत्यु की भी गाड़ी आने वाली है उससे पहले अपने आप को सचेत करते हो तो आप का जीवन स्वर्ण के समान निखर जायेगा। अन्यथा कई बार जन्में हैं, कई बार मृत्यु की गोद में चले गये हैं, कई बार कब्रिस्तान बने हैं और कई बार जन्म स्थान बने हैं और ये सब बनते बनते कितने स्थान खाली हुए हैं, यह सब भगवान् जानते हैं जो महावीर बन कर ऊपर गए हैं, नीचे वालों की दशा जानते हैं। इसलिए यहाँ उन्हें बोलना पसंद नहीं आया, रहना बी परंद नहीं आया, बातचीत करना तक परंद नहीं आया नहीं आया, क्योंकि वह हम लोगों की आदत भी जानते हैं। हम ऐसे हैं जैसे ठर्रा मूंग रहता हैं ना, और वह ठर्रा मूंग कभी सीझता नहीं हैं, कभी भीगता नहीं, उसके द्वारा कभी भी दाल नहीं बन सकती, क्या होगा? उसको बोए तो कभी वह धान पैदा नहीं कर सकता। ऐसे ही आप लोगों का जीवन भीगता नहीं, वर्षा होने के उपरांत तो भीगना चाहिए। महावीर जैसे तीर्थकर, राम जैसे पुरुषोत्तम पुरुष आए और उन्होंने धर्मामृत की वर्षा भी की, लेकिन आज तक आप गीले नहीं हुए।

     

    आप कहते हैं कि महाराजजी! भींग तो गए थे, लेकिन फिर सूख गए हैं। और ऐसा सुखा लिया आप लोगों ने, ऊपर ऊपर भींग गए होंगे भीतर से भिगाव नहीं आया था और भीतरी भिगाव ही एक प्रकार से भिगाव माना जाता है। एक से एक महान पुरुषों का संयोग आपको अपने जीवन में मिला फिर भी आप लोगों के जीवन में परिवर्तन न आये तो कौन से जीवन के माध्यम से आपमें परिवर्तन आने वाला है? साथ-साथ इस भूमि पर महावीर की यात्रा का स्पर्श हुआ, यहीं पर अनेक महान संतों ने विचरण किया, अपनी पदरज के माध्यम से हम लोगों को पवित्र बनाया लेकिन फिर भी हम लोगों के अन्दर वह पवित्रता आज तक नहीं आई। तो हमने पहले कहा था ध्यान रखना कि करंट बिना वह बल्ब वह ध्वनि कुछ भी हो वह हमें उपलब्ध नहीं होने वाली।

     

    केवल इधर-उधर लाईट फिटिंग करवाने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होने वाला है। करंट को प्रवाहित होने दो। महावीर भगवान् ने करंट को प्रवाहित किया था लेकिन हमने अपनी उस लाइन में उसको जगह नहीं दी। करंट यदि आ भी जाये तो भी हमने बटन नहीं दबाया, बटन दबाने के लिए हम कोशिश भी करें तो आप लोग कहते हैं कि महाराज इसमें बहुत तकलीफ होती है। दाम तो हमें देना पड़ेगा। आप देख लो, दाम नहीं देना चाहेंगे तो तीनकाल में वह माल मिलने वाला नहीं है जो भीतर घुसा हुआ है, अन्दर बैठा हुआ है। बन्धुओ! महावीर भगवान् की जयन्ती से हम अपने को अजर अमर बनाने का निष्कषायी बनाने का प्रयास करें तभी यह महावीर जयंती मनाना सार्थक है।

     

    वैसे तो आत्मा का न जन्म होता है और न मृत्यु केवल ऊपर का शरीर मात्र बदलता जाता है। जैसे पुराना वस्त्र जब जीर्ण शीर्ण होकर फटने लग जाता है तब उसे आप लोग चेंज कर देते हैं, वैसे ही जब तक यह आत्मा संसार से मुक्त नहीं होती तब तक यह नई नई पर्यायें, शरीर के रूप धरता चला जा रहा है। इसी प्रकार की यात्रा अनादिकाल से चली आ रही है। यही एक बंधन है, यदि इसके ऊपर उठना चाहते हैं तो महावीर भगवान् के आदर्शमयी जीवन को जानो, पहचानो और उसी के अनुरूप बनने की चेष्टा करो। अंत में चार पंक्तियाँ कहकर मैं अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ -

     

    नीर निधि से धीर हो, वीर बने गंभीर।

    पूर्ण तैरकर पा लिया भव सागर का तीर॥

    अधीर हूँ मुझे धीर दो सहन करूं सब पीर।

    चीर-चीरकर चिरलखें अन्तर की तस्वीर॥

     

    || भगवान् महावीर स्वामी की जय || आचार्य गुरुवर ज्ञानसागर महाराज की जय ||


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