महावीर के महान् जीवन को हम शब्दों में नहीं बांध सकते हैं। शब्द जड़ हैं एवं शब्द का एक क्रम होता है फिर भी यदि उनके साथ भाव जुड़ जाते हैं तो उस विराटता को भी एक वाक्य में बांध सकते हैं। बांध का अर्थ कोई बांध बांधना या रस्सी से बांधना नहीं है। उस महान् व्यक्तित्व को यदि समझना है तो उसे जीवन में उतारना होगा।
परोपकाराय रवे प्रवासः परोपकाराय कवे प्रयासः ।
परोपकारायवने बसंत परोपकारायवदंति संता॥
सुबह सूर्य की यात्रा प्रारंभ होती है बालभानु के रूप में। बालभानु के उदय होने पर चिड़िया चहकने लगती है। जब दोपहर में भानु प्रतापशाली हो जाता है, तब उसे सब देख नहीं पाते हैं। जो सूर्य की तीखी तीखी किरणें जलाती हैं उन्हीं किरणों में कोमल-कोमल कलियों को खिलाने (विकसित करने) की क्षमता है। जीवन में पड़े बीजों को अंकुरित करने की क्षमता है।
आप लोग सनराइज और सनसेट देखने जाते हो, उसके तेज प्रताप को देखना नहीं चाहते जबकि हमें उसके प्रकाश और प्रताप की कीमत करना चाहिए क्योंकि उसमें महान् परोपकारिता, महान् विशालता और महान् विराटता छिपी है। उसकी विशालता, विराटता, परोपकारिता यही है कि वह सारे विश्व को ऊर्जा देता रहता है। इसी प्रकार आज से २५ सौ वर्ष पूर्व एक ऐसे सूर्य का उदय हुआ जिसने सबको ऊर्जा दी, सोई हुई चेतना को जागृत किया। उनके द्वारा दिये हुए सूत्र दिये (दीपक) का कार्य कर रहे हैं। उन सूत्रों में प्रकाश भरा हुआ है, इसलिए उनके सामने अंधकार रह कैसे सकता है। यदि प्रकाश की यात्रा नहीं होती तो अंधकार भागता कैसे ? भगवान् महावीर स्वामी ने प्रयास करके प्रकाश फैलाने का काम किया है। ज्ञान दीपक के समान है जो स्वयं प्रकाशित होता है और दूसरों को प्रकाशित करता है। जब सूर्य पूर्व में रहता है तो पश्चिम में उसकी किरणें नहीं पहुँच पाती हैं इसलिए वह प्रवास (यात्रा) करता है। छाया की ओर देखने से बैठने के भाव आ जाते हैं। छाया अधर्म द्रव्य है। अत: अधर्म द्रव्य की शरण में मत जाओ (जैसा द्रव्य संग्रह में कहा है) छाया जह पहियाणां....
छाया आशा का प्रतीक है और इस प्रकार होने से अच्छाई समाप्त हो जाती है। १२ बजे जब तेज प्रतापी सूर्य आता है तब छाया गायब हो जाती है।
जब तक मेहनत नहीं होती तब तक पसीना नहीं आता और पसीना न आने से भीतर का विकार (रोग) बाहर नहीं आ सकता मेहनत का अर्थ मैं का/अहं का नत नष्ट हो जाना। अर्थात् मेहनत से अहं झुक जाता है और समर्पण के भाव आ जाते हैं। आप लोग बातों बातों के लिए हिल जाते हैं किन्तु कार्य करने के लिए नहीं हिलते। योजनाएँ बहुत बनाते हैं, परन्तु सरकार भगवान् भरोसे होती है। आप भगवान् को आदर्श मानकर कहते हैं, आप ही डूबती नैया को पार लगा सकते हैं। बन्धुओं आदर्श को सामने रखने मात्र से काम नहीं होता किन्तु आदर्श को सामने रखकर तदनुरूप पुरुषार्थ करने से काम होता है।
भगवान् दूसरों को पानी पिलाकर प्यास बुझाते है और आप अपने को पानी पिलाकर प्यास बुझाते हैं, इन दोनों में बहुत अंतर है। अपने आपको पानी पिलाने से प्यास बुझती है इसे छोड़ दो, बंधुओं, दूसरों को पानी पिलाकर देखो तो क्या होता है ? जो देना जानता है दूसरों की प्यास बुझाता है, वह अपनी प्यास बुझा ही लेता है। आज देखो मैत्रीकुण्ड में कैसे हजारों पशु पक्षी पानी पीकर चले गये, मैंने कई लोगों से सुना है खिलाने-पिलाने के बाद (आहारदान आदि से) भूख प्यास मिट जाती है। आप खिलाना-पिलाना भूल जाते हैं किन्तु खाना पीना नहीं भूलते। अपने आप को भूलकर दूसरों को प्रकाश देने का, खिलाने पिलाने का और शरण देने का कार्य महावीर, राम, हनुमान, आदिनाथ आदि ने किया है।
बाँटने (वितरण) से कभी समाप्त नहीं होता किन्तु डांटने से समाप्त हो जाता है। सब बांटने के लिए है रखने के लिए नहीं, यदि रखते चले जाये तो स्थिति बिगड़ जायेगी। अर्थ को जितना प्रयोग में लाया जाये उतना विकास होगा। ताले में बंद रखने से विकास रुकता है, दरिद्रता बढ़ती है और यदि तन-मन-धन सब बांट दो तो सारी दरिद्रता समाप्त हो जायेगी।
भगवान् महावीर ने कुछ दिया नहीं किन्तु जो कोई आया उसे अपनाया यही उनकी आय है, व्यय तो है ही नहीं। उन्होंने जड़ का संग्रह नहीं, चेतन का संग्रह किया। उन्होंने जड़ के जोड़ने को नहीं, छोड़ने को अपनाया है, इसीलिए उनकी कीर्ति चारों ओर बढ़ती (फैलती) चली गई। भगवान् महावीर स्वामी ने छोटों को बड़ा बनना सिखाया है इसीलिए वे बड़े हुए हैं।
मंत्र पढ़ने से या रटने से सिद्ध नहीं होता, किन्तु उसके प्रति श्रद्धा समर्पण और एकाग्रता से सिद्ध होता है। जो अपने जीवन में मंत्रों को आत्मसात कर लेता है उसे मंत्र अपने आप सिद्ध हो जाते हैं। मंत्रों का अपना प्रभाव होता है जैसे गारुण मंत्र के प्रयोग से सर्प को आकर उसका विष निकालना पड़ता है, जिसे उसने काटा है।
हम लोगों का जीवन वन है, जी हाँ एक वन है, जिसमें पेड़ तो हैं, किन्तु फल फूल पत्तों से रहित सूखा सा है, जिसकी छाया भी अच्छी नहीं लगती। उस सूखे वन को बसंत हरा भरा बना देता है। जहाँ बसंत न भी हो, वहाँ यदि संत चले जाय तो बसंत आ जाता है। अकाल भी सुकाल बन जाता है। महावीर स्वामी के आने से यही हुआ। उनके जन्म होने से पूर्व ही दरिद्रता समाप्त हो गयी, क्योंकि उनकी दृष्टि आत्महित के साथ-साथ पर कल्याण की भी थी, इसलिए आज भी उनका नाम ले रहे हैं। हम अपने जीवन में ऐसा कार्य करें जो बसंत के समान हो। जो बिना दिये जीना चाहते हैं, वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं।
उसने अपने जीवन को ही नहीं समझा जो मात्र लेने की बात जानते है देने की बात सुनना भी नहीं चाहते। कदम स्वार्थ की ओर बढ़ रहे हो परमार्थ की ओर नहीं तो ऐसा करना भी अपने आपको धोखा देना है। द्रव्य संग्रह की ओर वही दृष्टि रखता है जो द्रव्य संग्रह को नहीं देखता (पढ़ता)। 'द्रव्यति इति द्रव्य' जो द्रवणशील है वह द्रव्य है यह जब द्रव्य का लक्षण समझ में आ जाता है तब द्रव्य संग्रह से दृष्टि हट जाती है।
भगवान् महावीर स्वामी का जीवन काल ७२ वर्ष का था उसे कारिका के समान चार चरणों में बांट दो तो १८-१८ वर्ष एक एक चरण में बैठते हैं ये १८ दोषों के नाश के लिए है। अंतिम चरण में कहा गया कि संतों के वचन परोपकार के लिए होते हैं कहा भी है त्रिभुवण हिद मसद वक्काण अर्थात् तीनों लोकों के हित के लिए संतों के वचन होते हैं।
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