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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 12 - आत्मा को छानने का छन्ना

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    आज रविवार है जो आपको बहुत अच्छा लगता है। रवि का अपना काम है जगत को प्रकाश देना। रवि के समान ही महान् व्यक्तियों का काम हुआ करता है जो युगों-युगों से चला आ रहा है। जीवन क्या है, इसको बताने वाला ज्ञान है, साहित्य और शब्द है जो प्रकाश का काम करता है। शब्द जीव है किन्तु यह जीव के बिना उत्पन्न नहीं होता शब्दों को आज तक विज्ञान ने पैदा नहीं किया। शब्द का जीवन जीव के बिना प्रारंभ नहीं होता। उसे भाव प्रदान करने का श्रेय जीव को ही है। शब्दों से हम समझ जाते हैं कि हमारा स्वभाव क्या है, सुख-दुख क्या है, हमारा लक्ष्य क्या है इत्यादि।

     

    मूर्ति खंडित हो जाये तो उसका दूसरा निर्माण हो सकता है किन्तु एक बार लिखा साहित्य खराब हो जाने पर दुबारा लिखा जाना कठिन है। अपने आपको पहचानने के लिये सारा परिश्रम किया जाता है। जो अपना परिचय दूसरों के माध्यम से देते हैं उसे मैं उधार समझता हूँ। जिस प्रकार साहित्य की समीक्षा होती है उसी प्रकार आत्मा की भी समीक्षा होना चाहिए, लेकिन वह बिना आत्म ज्ञान के नहीं हो सकती है।

     

    चार ज्ञान गूंगे हैं केवल एक ज्ञान बोलता है, वह है श्रुत ज्ञान। जो बोलता है वह बोलने वाले का तो कल्याण करा ही देता है, किन्तु दूसरे का भी करा देता है। ज्ञान कल्याण के लिये तब हो सकता है जब हम उस पथ पर चलने लगते हैं। जिन भगवान् की मुख मुद्रा के माध्यम से मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हो जाते हैं, अत: मतिज्ञान भी स्व (आत्म) कल्याण के लिये कार्यकारी है। जिन लिंग के माध्यम से जिन मार्ग एवं सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। श्रुतज्ञान के माध्यम से युग परिवर्तित कर सकते हैं बस हमारे पास योग्यता होना चाहिए, इसके माध्यम से लाखों व्यक्तियों को एक साथ उपदेश दिया जा सकता है।

     

    धर्म हमारे भीतर है बस अधर्म को छांट कर भगाने की आवश्यकता है। स्वरूप हमारे भीतर है बस कुरूप को छांटकर बाहर फेंकने की आवश्यकता है। अपने इन दोषों का मूल अपना अज्ञान ही है। अज्ञान का अर्थ उल्टा ज्ञान होता है जो विभाव रूप होता है अभाव रूप नहीं।

     

    श्रुतज्ञान के माध्यम से ही हम अपने आप को देख सकते हैं जैसे दर्पण में देखते हैं किन्तु पीछे देखो तो मात्र सिंदूर दिखता है। अपने आप के चेहरे को दर्पण में देखना हो तो सिंदूर की ओर नहीं देखना यदि हम जिन लिंग प्राप्त कर लेते हैं तो उपदेश देने की कोई आवश्यकता नहीं है मात्र दर्शन से ही दुनिया बोध प्राप्त कर लेगी।

     

    दुनिया को नहीं अपने आप को छानो, किन्तु अभी तक दुनिया को छाना। अपने आप को नहीं छाना, दुनिया को छानते छानते छने वर्कशाप के क्लीनर के वस्त्र के समान हो गये हैं किन्तु छान नहीं पाये, श्रुत ज्ञान छने का काम करता है उससे अपने आप को छानी। छने को हमेशा साफ रखना आवश्यक है।

     

    श्रुतज्ञान का अर्थ आगम होता है। स्व और पर तत्व जिसके द्वारा अभिगम्य (जाना जाता) हे वह आगम कहलाता है। आपाधापी में स्व-पर का ज्ञान समाप्त हो जाता है। आज पढ़-अपढ़ दोनों इसी में लगे हैं यदि इस आपाधापी में संन्यासी भी लग जायें तो आपा को भूल जायेंगे। गर्मी का समय था, सुबह की बात थी, रास्ते में नीम के वृक्षों की पंक्ति लगी थी तब एक दोहा बना

    खंडन मंडन में लगा, लिया न निज का स्वाद।

    फूल नीम का महकता, किन्तुकटुक ही स्वाद।

     

    नीम का फूल महकता बहुत है, लेकिन चखोगे तो कटुक ही लगेगा। इसी प्रकार जो श्रुत ज्ञान खंडन मंडन में लगा हो, तो वह नीम के पुष्प के समान कटुक ही होता है। जो श्रुत आत्मा के स्वाद लेने में लगा हो वही सही है, उसी से मीठा स्वाद आता है। आत्म तत्व की प्रधानता के बिना तत्व ज्ञान नीम के समान कटुक ही होता है। आत्म ज्ञान होना और आत्म संवेदन होना दोनों अलग-अलग हैं। जो आत्मा का स्वाद नहीं ले रहा है वह आत्म ज्ञान नहीं है भले ही श्रुत केवली क्यों न हो। जहाँ हारजीत, खंडन मंडन की बात हो वहाँ कुछ हाथ नहीं लगता। यदि हम ज्ञान के माध्यम से स्वमुखी हो जायें तो आनंद का पार नहीं रहता। जिस समय आत्मा का स्वाद आ जाता है, उस समय वर्णन करने की इच्छा ही नहीं होती है।

     

    घड़ी वही मूल्यवान है जिस घड़ी में हम आत्म वैभव की ओर दृष्टिपात करते हैं। हम पर के वैभव में लगे हैं आत्म वैभव में नहीं। आनंद तो आत्म वैभव में आता है दूसरों के वैभव को देखने में नहीं। पर ज्ञान के साथ ‘आत्म पधाने' पद भी नहीं भूलना चाहिए।

     

    योग्यता का नाम भव्यता है। जो संसार की वस्तुओं को प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं वे भव्य हैं और जो अपने को जानकर उसे प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं वे भी भव्य हैं इस दृष्टि से सभी भव्य हैं। जब हम अपनी आत्मा से बाहर आते हैं तो बहिरात्मा हो जाते हैं। वह बहिरात्मा ही दूसरे को बहिरात्मा कह सकता है।

     

    दुनिया डरती है उस व्यक्ति से जो दुनिया की ओर देखता है किन्तु जो अपनी ओर देखता है उससे कोई भी नहीं डरता। इसीलिये भगवान् बाहुबली के शरीर में पक्षियों ने घोंसले बना लिये, सिंह आकर बैठ गये, जीव जंतुओं ने वामी बना ली। मन के अधीन मानव है इसी मानव से प्रदूषण फैलता है पशु-पक्षियों से नहीं। पशु पक्षियों का बोलना संगीत का काम करता है किन्तु मानव की शब्द ध्वनियों से विप्लव हो जाता है, प्रदूषण फैलता है। शब्दों के माध्यम से यदि शांति फैलायी जा सकती है, तो विप्लव भी फैलता है। सिंह हमारा बैरी नहीं किन्तु हमारे शब्द सुनते ही उसका उपयोग उस ओर चला जाता है और उसे लगता है यह हमारा दुश्मन है। शब्दों में शक्ति होती है। एक ही शब्द, योजनों तक तेजो लेश्या का काम कर सकता है। शब्द शक्ति एक है, प्रयोग अच्छाई और बुराई के रूप में दो प्रकार से किये जाते हैं। यदि हम सात्विक मन से दूसरे के लिये अच्छे शब्दों में कुछ कह देते हैं तो उद्धार हो जाता है और यदि बुरे मन से कुछ कहते हैं तो विप्लव हो जाता है। श्रुत दो प्रकार का होता है एक स्वार्थ दूसरा परार्थ। दुनिया में अर्थादि के लिये परिश्रम सभी करते हैं किन्तु जो विद्वान करते हैं वह सभी के लिये होता है। संस्था के माध्यम से साहित्य प्रकाशन तो हो सकता है किन्तु यदि आँखों में ज्योति ही न हो तो, कहना ही पड़ेगा की प्रकाश न तो प्रकाशन से लाभ क्या ?

     

    धर्म की यहाँ गुजरात में भूख प्यास है किन्तु दाल के पानी के रूप में। यहाँ रत्नकरण्डक श्रावकाचार ही पर्याप्त है न्याय शास्त्ररूपी हलुआ नहीं, आप भी जिनवाणी के रहस्यों को समझते हुए मोक्षमार्ग पर अग्रसर हों बस यही गुरु ज्ञानसागरजी महाराज को स्मरण करते हुए कहना चाहता हूँ।

    Edited by admin


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