(आज ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी थी जिसे श्रुत पंचमी के रूप में मनाया जाता है इस कार्यक्रम का संचालन ब्रह्मचारी सर्वेश कुमार जी ने किया। इस प्रसंग पर ब्रह्मचारी ऐ-के- जैन इंजीनियर अहमदाबाद, क्षुल्लक निर्णय सागर जी, क्षु- विनीत सागर जी, ऐलक नम्र सागर जी एवं योगसागर जी ने अपने उद्बोधन दिये तदुपरांत आचार्य श्री ने एक दोहे से अपने प्रवचन की शुरूआत की)
सार सार दे सार दे, बनू विसारद धीर।
सहार दे, दे तार दे, उतार दे उस तीर॥
सरस्वती (जिनवाणी) माँ से हमें सार की मांग करना चाहिए। अक्षर ज्ञान की मांग करना चाहिए शब्दों की नहीं। जो क्षय को प्राप्त न हो वह है अक्षर। अक्षर को सुन सकते हैं पढ़ सकते हैं और सुना सकते हैं। शब्द को सुन सकते हैं, पढ़ नहीं सकते हैं। भगवान् के द्वारा निकले शब्द श्रवण से अथवा गुरुओं के मुख से निकली देशना सुनने से देशना लब्धि प्राप्त होती है।
दुनिया में पदार्थ अनंतानंत हैं जो केवली के ज्ञान में दर्पणवत् झलक रहे हैं। उसमें बहुभाग अकथ्य है। अकथ्य और अवक्तव्य में बहुत अंतर है। जिस अकथ्य को जब केवली भगवान् भी नहीं कह सकते फिर उसे आम लोग छाती ठीक ठोक कर कैसे कह रहे हैं, यह कुछ समय में नहीं आता। ध्यान रखना एक पदार्थ का पूर्ण कथन अनंत केवली भी नहीं कर सकते।
केवली भगवान् ने जो जाना उसका अनंतवाँ भाग कहा। उस अनंत वे भाग का गणधर ने अनंतवां भाग सुना, उसका अनंतवाँ भाग कहा और जो कहा उसका असंख्यातवाँ भाग लिखा गया। आज वही पूर्ण नहीं है उसका अंशमात्र ही रह गया। बीच-बीच में जो आचार्य हुए वे हमें उसका सारसार देते रहे। उसी से हमारा काम चल रहा है।
हमें सभी प्रकार की बीमारी लगी है इसीलिए किसी एक स्पेशलिस्ट डाक्टर से काम नहीं चलने वाला किन्तु सभी प्रकार के रोगों की दवाई करने वाले सामान्य डाक्टर से काम चलेगा। ऐसे ही सामान्य डाक्टर चाहिए। हमारे आचार्यों ने सामान्य डाक्टर का कार्य किया है। उन्होंने कहा में सारसार की बात बताऊँगा। इसमें अभिमान की बात नहीं यह तो गौरव की बात है।
आचार्यों ने कहा पहले भगवान् को पहचानी। शास्त्र की पहचान कराते हुए समंतभद्र स्वामी कहते हैं -
जो कुपथ का निराकरण करे उसे शास्त्र कहा है और जो सब का हित (भला) करने वाला है, हित करने वाले को सार्वम् कहा है। जिसका वादी प्रतिवादी द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सके, प्रत्यक्षपरोक्ष और अनुमानादि प्रमाणों से कोई विरोध न आता हो ऐसा जो सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट है उसे शास्त्र कहते हैं। जैसे शब्द देखने में नहीं आता वैसे ही सर्वज्ञत्व देखने में नहीं आता है।
प्रतिमा क्या कह रही है उसे कानों से नहीं सुन सकते, उसे मात्र आँखों से सुन (देख) सकते है। आचार्य समंतभद्र स्वामी कहते है जो वीतरागी, हितोपदेशी और जो १८ दोषों से रहित है वे सर्वज्ञ हैं वही हमारे देव हैं। भोजन करने वाले हमारे देव (भगवान्) नहीं हो सकते। हमारे भगवान् बाहर भीतर एक से लगते हैं। उनकी मुद्रा सामुद्रिक होती है। वे जीवन पर्यत सदा किशोर बालक वत् होते हैं, वे कभी वृद्ध नहीं होते यदि वृद्ध होते हैं तो ज्ञान चारित्र और उम्र से वृद्ध होते हैं। भगवान् की ऐसी वीतरागता की ओर एक बार भी दृष्टि रखकर देखने मात्र से अनंतकालीन मिथ्यात्व क्षय को प्राप्त हो जाता है और सम्यक दर्शन प्राप्त हो जाता है।
इन आँखों से सर्वज्ञता नहीं दिखती, वीतरागता दिखती है। जहाँ वीतरागता हो वहाँ सर्वज्ञता आ ही जाती है। सर्वज्ञता जानने की चीज है और वीतरागता देखने की चीज है।
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद-रसलीन।
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज रहसविहीन।
मिथ्या दृष्टि की दृष्टि में भी वीतरागता आ सकती है किन्तु सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में सर्वज्ञता नहीं आ सकती। देव शास्त्र गुरु की पहचान वीतरागता से ही होती है।
आज सेल्फ स्टेडी होने लगी है जो ठीक नहीं। आज जो निजी स्वाध्याय और उस स्वाध्याय का जो व्यवसाय होने लगा ये दोनों इस युग का बड़ा आश्चर्यजनक कार्य है। आज ग्रन्थों पर मूल्य आ गये, सर्वाधिकार सुरक्षा की बात आ गयी। पहले ग्रन्थों पर मूल्य स्वाध्याय, सदुपयोग, चिंतन मनन आदि रखा जाता था। आज ग्रन्थों को वाद में देखते हैं, पहले कीमत देखते हैं। जिनकी आजीविका का साधन जिनवाणी है वे कभी सत्य नहीं बोल सकते हैं। जरा विचार करो जिनवाणी से चेतन या वेतन, स्वाध्याय या व्यवसाय किसकी बात कर रहे हो। आज इतना तो अच्छा है कि प्रतिष्ठित भगवान् का मूल्य नहीं रखा गया किन्तु जिन जिनवाणी नहीं बच पायी।
भगवान् अतुल हैं, अमोल है। प्रतिष्ठित होने के बाद भगवान् का मूल्य सम्यक दर्शन होता है। एक कारिका का मूल्य करोड़ रुपये भी कम है। कारिका तो अमूल्य है इसी प्रकार की सही पहचान से सम्यक दर्शन हो सकता है। जिन ग्रन्थों के पढ़ने से, विषय कषायों का पोषण और आजीविका का साधन हो जाय वह स्वाध्याय नहीं है।
श्रद्धानं परमार्थाना माप्तागमतपोभूताम्।
त्रिमूढ़ापोढ़मष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥
इस प्रकार जिसके माध्यम से सम्यक दर्शनहोता है और जिस भक्ति पूजन अभिषेक से असंख्यात गुणी कर्मों की निर्जरा बतायी है उसे बंध का कारण कहा जा रहा है। जिसे व्यवहार सम्यक दर्शन मानकर स्वीकार नहीं किया जा रहा है और अपनी अपनी चला रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे एक बालक अंधेरे में खोटी चवन्नी (२५ पैसे का सिक्का) चला लेता है और कहता चल गई, चल गई खोटी चवन्नी चल गई। ग्रन्थों में लिखा है कि सम्यक दर्शन देव दर्शन करने से होता है किन्तु ऐसा कहाँ लिखा कि पूजन अभिषेक करने से मात्र बंध ही होता है ?
आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि -
जेण रागा विरजेज जेण सेय सुरजदि
जेण मेक्तिपभावेज तणांणा जिण सासणे॥
धर्मानुराग को हम राग तो कहते हैं किन्तु यह राग महानता लिये होता है। जैसे आचार्य कुंदकुंद देव महाराज ने धर्मानुराग से ही तो शास्त्र की रचना की है। जब धर्मानुराग बुरा था, हेय था,तो आचार्यों ने उस राग से ग्रन्थ क्यों लिखे। स्वयं पथ से दूर हो रहे हों तो दूसरों को कैसे रास्ते में ला सकते हैं। जैसे माँ ने नाक में तेल लगा-लगा कर सीधी की है तभी हम बाजार में नाक दिखाने लायक बने हैं, वैसे ही अनेक आचार्यों ने अपना कर्तव्य समझकर शास्त्रों की रचना की जिसके माध्यम से हम यहाँ खड़े होने लायक बने हैं। जिन आचार्य महाराजों ने ये धर्मानुराग की बात कही है उसे हम आग कह दे यह हमारा ही महान् अपराध माना जायेगा। ऐसे वीतरागी महाराजों को हम रागी कह दे तो हम अभागे ही माने जायेंगे।
जिनवाणी भव्य जीवों के कल्याण के लिए है। पुरुषार्थ करो मीठा फल मिलेगा।
कुछ लोगों का मानना है कि कसायपाहुड षट्खडागम से प्राचीन है। कसायपाहुड में एक ही विषय पर बहुत किन्तु षट्खडागम में बहुत प्रकार का है। ऐसे ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा के ऊपर कितनी धूल है उसे कैसे दूर कर सकते हैं। जैनेतर लोग आज कहते हैं कसायपाहुड को पढ़कर कि कोई सर्वज्ञ है जिन्होंने ये सब बताया कि सारे विश्व में ऐसा ग्रंथ नहीं है। ऐसी जिनवाणी को पढ़कर अथवा सुनकर रत्नत्रय की प्राप्ति हो तभी सार्थक है। जिनवाणी को पढ़कर जहाँ-तहाँ नहीं रखना चाहिए उसकी पूरी विनय होना चाहिए।
कल्याण हो जायेगा
माल मत छोड़ो, मालकियत छोड़ दो।
कल्याण हो जायेगा
जिसने जन्म लिया है उसकी मोत निश्चित है
इसलिये मौत को नहीं, मौत का भय छोड़ दो
कल्याण हो जायेगा
भोजन अनिवार्य है, जिदगी जीने के लिये
इसीलिये भोजन नहीं, भोजन के प्रति गृद्धता छोड़ दो
कल्याण हो जायेगा। (विद्यामंजरी से)
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