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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 18 - जहाँ मिटती तन मन की गर्मी

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    तन की गमों तो मिटे मन की भी मिट जाय।

    तीर्थ जहाँ पर उभय सुख अमिट अमित मिल जाय।

     

    संसारी प्राणी दो प्रकार के दुखों से दुखित है। तन से और मन से जिसमें मन के द्वारा अर्थात् अपने भावों से ज्यादा दुखित है किन्तु तीर्थक्षेत्रों पर दोनों प्रकार के दुख मिट जाते हैं और कभी न मिटने वाला असीम अमित सुख प्राप्त होता है।

     

    गर्मी तन की हो या मन की वे दोनों बाहर से नहीं आती है। जैसे मलेरिया बुखार में ठंड बाहर से नहीं आती और गर्मी रजाई से नहीं आती वह तो भीतर से आती है, उसी प्रकार पुण्य पाप कर्म भीतर से आते रहते हैं।

     

    सिन्धु नीर ते प्यास न जाये तो पण एक न बूंद लहाय॥

    नरकों में इतनी प्यास लगती है कि समुद्र के पानी से भी नहीं बुझती। फिर भी एक बूंद पानी नहीं मिलने पर भी नहीं मरता यहाँ पर पानी न मिले तो मर जाता है इस कर्म सिद्धान्त की ओर भी देख लेना चाहिए।

     

    नारकियों को गर्मी-ठंडी एवं भूख प्यास लगती है, किन्तु वहाँ असुर कुमार के देव जाते हैं उन्हें ठंडी गर्मी भूख प्यास नहीं लगती। तिल-तिल देह के खंड होते हैं फिर भी उन नारकियों के शरीर पारे के समान पुनः जुड़ जाते हैं यह कर्म सिद्धान्त की बात है। जो सुख-दुख, हर्ष-विषाद है वे पुण्य पाप कर्म के उदय से मिलते हैं।

     

    बंधन जब तक नहीं टूटते तब तक कितने भी प्रबंध कर लो फिर भी कुछ होने वाला नहीं है। इस प्रकार के ज्ञान होने को धर्म कहते हैं, इसी को भेद विज्ञान कहते हैं। सुख-दुख कर्म की देन है जब तक ऐसा नहीं जान लेते तब तक समता नहीं आती है। संसार में हम जो भोग रहे हैं और भोगेंगे वह सब कर्मोदय से है। जैसी करनी वैसी भरनी यह भारतीय नीति ही नहीं, सिद्धान्त भी है।

     

    दया किस पर और क्यों की जाय यह भी होश (ज्ञान) रखना चाहिए। जब हम दया करने चले जाते हैं तब अपने आप कर्म और कर्म फल की ओर दृष्टि चली जाती है। जैसे सीता के जीव ने स्वर्गों से देखा कि रावण का जीव नरक में है। सीता के जीव ने वहाँ जाकर संबोधन किया और साथ लेकर आने की कोशिश भी की किन्तुला नहीं पाया। वह रावण भी सोचता है मैंने पूर्व जीवन में अच्छा किया होता तो अच्छा होता।

     

    भारतीय संस्कृति की जैसी करनी वैसी भरनी वाली बात नरकों में भी काम आती है जैसे रावण के जीवन में घटित हो रही है। वह पूर्व कर्म को लेकर पश्चाताप कर रहा है। अत: अच्छा है कि यहाँ पर कुछ अच्छा कर लो, नहीं तो नरकों में जाने के बाद पश्चाताप ही हाथ लगेगा।

     

    आज कोई संस्था हो बिना पैसे से नहीं चलती है। अर्थ का यदि सदुपयोग नहीं किया जाता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। काल रहते उसका सदुपयोग कर लेना चाहिए। काल नहीं पलटता किन्तु काल में जो किया जाता है वह जरूर पलटता है, जो भविष्य काल में कर्मों के रूप में आ जाता है। हम पलटाने के भाव तो कर सकते हैं लेकिन पलटा नहीं सकते है जैसा सीता के जीव ने किया। दया करुणा के माध्यम से तत्ववेत्ता उपकार करने की बात कर ही लेता है। कर्म का उदय सत्य और तथ्य है।

     

    हमें ऐसे समीचीन कर्तव्य का पालन करना चाहिए जिससे तन और मन दोनों प्रकार की गर्मी मिट जाये। यहाँ पर करोड़ों आत्माओं ने दोनों प्रकार की गर्मी मिटायी, अंदर बैठे शत्रुओं को निकाल फेंका और मुक्ति को पाया प्रत्येक शिला इसकी प्रमाण देती है।

     

    बम दो प्रकार के होते हैं एक बारूद भरकर बनाये जाते हैं जिन्हें गर्मी (आग) दी जाती और फूट जाते हैं। इन्हें सावधानी से रखना होता है नहीं तो बिना टाइम में भी फूट सकते हैं। दूसरे प्रकार के टाइम बम्ब होते हैं जो समय आते ही फूट जाते हैं। यदि विस्फोट से बचना चाहते हो तो समय से पूर्व निकालकर फेंक दी। उसी प्रकार हम समय से पहले चेत जायें तो हम भी कमाँ के विस्फोट से बच सकते हैं।

     

    भारत देश के मध्यप्रदेश में जबलपुर एक ऐसा स्थान है जहाँ खमरिया बारूद की फैक्ट्री है। उससे कुछ ही क्षणों में पूरा जबलपुर समाप्त हो सकता है इसीलिए वहाँ जल की ऐसी व्यवस्था रखी है कि एक मिनट में वह जलमय हो जाये और विस्फोट से बच सके। इसी प्रकार क्रोध कषाय रूपी बारूद को शांत करना चाहते हो तो क्षमा रूपी नीर लाओ ।

     

    ऐसे इस क्षेत्र पर साढ़े तीन करोड़ मुनियों ने कर्म रूपी बारूद के विस्फोट को शांत किया इसीलिए यहाँ पर जहाँ भी बैठो शांति का अनुभव होता है। मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जीवन को तप मय ढालना ।

     

    अंतर जगत बहुत विराट है। जो भूत भविष्य और वर्तमान से सम्बन्ध रखता है अंतर जगत की ओर दृष्टि रखने वाला ही उस विराटता से सम्बन्ध रखता है। जैसे वैज्ञानिकों के क्षण खोज में ही निकलते हैं उसी प्रकार तत्व वेत्ता के क्षण अंतर्जगत् में डूबे हुए तत्वज्ञान में ही निकलते हैं।

     

    जब शरीर भिन्न आत्मा भिन्न ऐसा भेद विज्ञान हो जाता है तब शरीर का ज्ञान तो होता है परन्तु लगाव नहीं रहता। यह शरीर राग-द्वेष की जड़ है और राग-द्वेष आग है ऐसा जानकर उसे पकड़ते नहीं मात्र जानते हैं। ऐसे भेद विज्ञानी घर में रहने वाले श्रावकों को भी विशेष लगाव नहीं रहता और एक कर्तव्य समझ कर कार्य करते चले जाते हैं।

     

    क्षेत्रों पर आयें तो अपने आपको जानने देखने की कोशिश करें अपने कर्मों के बारे में सोचें, सिद्धत्व का चिंतन करें। इन क्षेत्रों पर आज भी वही गंध है जो पहले थी। आज भी वही पवित्रता है जो पहले थी। यहाँ जैसे गाय भैंस आदि पशु आते हैं और चरकर चले जाते हैं वैसे ही कहीं आप तो यहाँ आकर नहीं कर रहे हैं।

     

    इस क्षेत्र पर आकर करोड़ों जीवों ने लाभ लिया और अनंत कालीन दुख की दशा को समाप्त किया। जो सभी अतीत होता जा रहा है, जो कभी भी वापिस नहीं आने वाला है। अत: जीवन के प्रत्येक क्षण उस दिव्य ज्योति को चलाने में लगाना चाहिए।

     

    हम जैसा खाते हैं वैसी डकार आती है। हम खाये महेरी और डकार खीर की आये ऐसा हो नहीं सकता। विषय कषायों में व्यतीत किये गये क्षण अंधकार पैदा करते हैं। अवशेष के माध्यम से ही विशेष बात समझ में आती है। इस क्षेत्र पर ये अवशेष नहीं रहेंगे तो फिर आप कैसे कह सकेंगे कि यह सिद्धक्षेत्र है इसीलिये बाप दादाओं से जो मिला है उसे सुरक्षित रखिये और अपने द्वारा कमाई गई पूंजी का दान करिये ।

    गुरु गगन से ऊँचा समुंदर से भी गहरा है।

    धर्म का महल बस उनके ही दम से ठहरा है।

    जिदगी क्या है मोह का पर्दा हटाकर देखो।

    पता चलेगा तुम्हें जरा खुद में नहाकर देखो।

    (विद्यामंजरी से)

    Edited by admin


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