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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 11 - दान का शुभारंभ श्रेयांस से

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    किसान अपनी फसल काटकर खलिहान में लाया फिर दांये करने लगा, पहले ट्रेक्टर नहीं थे इसीलिये बैलों से दांये की जाती थी। किसान ने बैलों को मुशिका लगा लिया। जो मुंह को सींदे (बंद कर) उसका नाम मुशिका है। धान्य पशु की खुराक नहीं यदि खा भी ले तो पचता नहीं। धान्य मानव की खुराक है और घास पशु की खुराक है किन्तु आज मनुष्य घास भी खाने लगा और धान्य भी।

     

    अपने किये गये कर्म का फल तिल का ताड़, सरसों का पहाड़ बनकर आता है। काल का सबसे छोटा प्रमाण एक समय है उसमें किये गये कर्म से ७० कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण की अवधि बनकर कर्म आते हैं। कर्म यदि थोड़ा सा ब्रेक लगा देता है, तो क्या क्या हो सकता है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आदिनाथ के जीवन की घटना है। उन्होंने पूर्व जीवन में ६ घड़ी के लिये बैल के मुख में मुशिका लगाया था जिसके फल स्वरूप ६ माह तक आहार का अलाभ रूप अंतराय कर्म बनकर सामने आया । श्रेयांसि बहुविध्नानी। श्रेष्ठ कार्यों में विध्न होते हैं।

     

    राजा श्रेयांस महापुरुष नहीं थे किन्तु महापुरुष से बढ़कर माने जाते हैं क्योंकि दान की परम्परा आदिकाल में उन्हीं ने चलाई थी, जिस समय राजा श्रेयांस के यहाँ आहार हुआ तो रत्नों की वृष्टि हुई होगी उसे देखने भरत चक्रवर्ती भी गया होगा, किन्तु चक्रवर्ती के हृदय में जरा भी मात्सर्य भाव नहीं आया। पूर्व भवों में देशना के संस्कार वर्तमान में कार्य कर सकते हैं जैसे राजा श्रेयांस के किये।

     

    आहार संज्ञा में पीड़ा भले ही न हो किन्तु आकुलता तो रहती ही ह, आकुलता साध्य और असाध्य भेद से दो प्रकार की होती है। आदिनाथ ने दीक्षा लेने के ६ माह बाद आहार चर्या की। यदि ६, ६ माह में एक बार आहार को उठे तो हजार वर्ष में दो हजार बार आहार तो किया होगा। पेट ने ऐसा काम किया कि बड़ों-बड़ों को भी क्यू (लाइन) में खड़ा कर दिया।

     

    केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शन ये भी पराश्रित हैं क्योंकि बिना वीर्य (शक्ति) के यह अपना कार्य नहीं कर सकते हैं अनंत शक्ति आवश्यक है ज्ञान दर्शन आदि को कार्य करने के लिये। जैसे करंट है किन्तु वायर नहीं तो बल्व नहीं जल सकता। बल्व नहीं हो और वायर लगा हो तो भी प्रकाश नहीं मिल सकता, यदि बल्व कम वाट का लगाया हो तो प्रकाश थोड़ा मिलेगा जिससे पूरा कमरा भी प्रकाशित नहीं हो सकता।

     

    किसी कार्य के सम्पन्न करने के लिये यथायोग्य विधि आवश्यक है कर्म काटने के लिये भी विधि है। यदि कर्म काटने की विधि ज्ञात है तो कट सकते है अन्यथा नहीं। कर्म बंधने के बाद बिना भोगे नहीं कट सकता, वह किसी न किसी रूप में फल देकर ही जायेगा, चाहे स्वमुख से फल दे या पर मुख से फल दे। इसीलिए कर्म बांधते समय ध्यान रखो। मुनि बनने के बाद १० वें गुणस्थान तक अंतराय कर्म का बंध और १२ वें गुणस्थान तक उदय चलता रहता है। भाव श्रद्धा का फल है अत: देवशास्त्र गुरु के ऊपर श्रद्धा करके उनके अनुसार बताये गये मार्ग पर चलो। जिससे उत्तरोत्तर कर्म निर्जरा बढ़ती चली जायेगी, कर्म कटते चले जायेंगे।

     

    जीवन मुक्ति सर्वप्रथम आदिनाथ भगवान् को मिली बाद में अन्य साधकों को। केवल ज्ञान प्राप्त हो जाना जीवन मुक्ति है, परन्तु आदिनाथ भगवान् से पूर्व कुछ साधु मोक्ष चले गये। वह वैसा हुआ जैसे भोजन के लिए सब एक साथ बैठे हों परन्तु पेट सबका अलग-अलग समय में भरता है। पेट भरते चले जाने पर उठते चले जाते हैं।

    Edited by admin


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