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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 13 - अहिंसा धर्म का महत्त्व

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    धर्म के स्वरूप के विषय में हम परिचित होते हुए भी अपरिचित से रह जाते हैं क्योंकि धर्म अहिंसा पर टिका है इसी बात को हम भूल जाते हैं। हम दया धर्म को उसके पास देख सकते हैं जिसके जीवन में अहिंसा है। जिस क्षेत्र में हिंसा रुक गई वहाँ अहिंसा है। हिंसा का रुकना ही अहिंसा है। हिंसा का अभाव ही अहिंसा का अवतार है।

     

    सबसे ज्यादा हिंसा संज्ञी पंचेन्द्रिय करता है। जैसे जैसे इन्द्रियाँ घटती चली जाती हैं वैसे वैसे हिंसा भी घटती चली जाती है। सबसे कम हिंसा एकेन्द्रियों से होती है। जहाँ पांच इंद्रियाँ होती हैं वहीं पंचायत बैठती है। पंचेन्द्रिय यदि सबसे ज्यादा हिंसा कर सकता है तो अहिंसा का पालन भी अच्छे ढंग से कर सकता है।

     

    आज देश को नहीं पूरे विश्व को शान्ति और उत्थान के लिये अहिंसा की परम आवश्यकता है। पतन का कारण रुक जाये तो उन्नति हो सकती है। पतंग होती है वह कोई भी बना सकता है किन्तु पतंग में डोर बांधना विज्ञान की बात है। बंदर की पूँछ की तरह पतंग की पूँछ होती है पतंग को उड़ाने के पूर्व बैलेन्स बनाने की बड़ी आवश्यकता है उसी प्रकार अहिंसा धर्म के लिये बैलेन्स परम आवश्यक है। हिंसा जितनी कम होती है, सुख शांति का अनुभव उतना अधिक होता है।

     

    अहिंसा धर्म की बात जैसे आप सुनने आये हैं, यहाँ धर्मसभा लगी है वैसे पूर्व में भी लगती थी। संत की वाणी खिर रही थी उसे एक व्यक्ति खड़ा खड़ा सुन रहा था। सभा समाप्त हुई सभी ने कुछ न कुछ नियम लिये, उस व्यक्ति ने कुछ भी नहीं लिया। संत ने उसे बुलाया। जैसे ग्राहक को पटाने की कला आपके पास होती है वैसे ही साधु के पास भी होती है। उसने कहा आपने जो कहा उससे विपरीत काम ही मेरा है। मेरा धंधा ही मछली मारना है फिर मैं कैसे हिंसा का त्याग करूं ? सूर्य तो एकाध दिन विश्राम ले सकता है लेकिन मैं विश्राम नहीं ले सकता साधू ने कहा ठीक है तुम एक काम करना, जो जाल में पहली मछली आये उसे छोड़ देना। उसने कहा यह तो सरल है। साधु महाराज ने कहा संकल्प पक्का होना चाहिए उसने कहा हाँ संकल्प पक्का है।

     

    संकल्प ले कर गया। जाल उठाया पानी में डाला पहली मछली आयी उसे निशान लगाकर छोड़ दिया। दूसरी बार जाल डाला, वही मछली आयी, दूसरी जगह तीसरी बार जाल डाला फिर वही मछली आयी इस प्रकार बार-बार वही मछली आई और वह छोड़ता गया। यदि आपसे कहा जाय कि जो पहला ग्राहक आये उसकी आमदनी (लाभ) मंदिर को दान दे देना तो आप नहीं कर सकते परन्तु वह प्रतिज्ञा में दृढ़ था। शाम हो गयी वह सोचता है कि गृहमंत्री (पत्नि) बहुत तेज है घर में प्रवेश नहीं देगी। घर गया वही हुआ रात भर बाहर ही पड़ा रहा रात्रि में सर्प ने काट लिया। वह मरकर देव हुआ। अहिंसा धर्म का यही तो महत्व है। छोटा सा नियम भी आत्म कल्याण के लिए कारण बन सकता है।

     

    व्रत (प्रतिज्ञा) कभी छोटा नहीं होता व्रत तो व्रत होता है, जिसका फल अपरंपार और अपूर्व होता है। संतों की वाणी से ही आत्मोन्नति का प्रारंभ हुआ करता है। जब तक अहिंसा धर्म में आस्था और आत्मा की भावना नहीं होगी तब तक उन्नति नहीं होगी। धर्म की शुरुआत तब होती है जब लिये गये संकल्प के प्रति दृढ़ता और आस्था होती है। आस्था को मजबूत प्रतिज्ञा के माध्यम से ही बनाया जा सकता है। धर्म की शुरुआत छोटे बड़े से नहीं किन्तु विचारों की दृढ़ता से होती है।

     

    जो आस्था और प्रतिज्ञा में कमजोर होता है वह कभी आत्मोन्नति नहीं कर सकता है। धारणा जिसकी पक्की होती है वह मंजिल प्राप्त कर लेता है। जब ज्ञान हो जाता है कि शरीराश्रित जीवन नश्वर है तब आत्मा की बात होती है और शरीर गौण हो जाता है।

     

    आज अहिंसा को रोकने की आवश्यकता होते हुए भी इसे रोकने के लिये कोई कटिबद्ध नहीं हो रहे हैं। जो हिंसा के माध्यम से धन का संग्रह होता है वह देश, समाज, परिवार एवं स्वयं के लिए घातक होगा। आज धर्म और समाज के प्रति बहुमान नहीं रहा इसी कारण अलकबीर जैसे कत्लखाने का डायरेक्टर जैन बन गया। पहले ऐसे हिंसक व्यापार को नहीं करते थे।

     

    जो पूर्व में इतने बड़े बड़े तीर्थक्षेत्र बनाये गये वे हिंसा के कार्य करके नहीं बनाये गये किन्तु जो न्याय नीति और दया का पालन करते हुए द्रव्य संग्रह किया, उसके माध्यम से बने हैं, तभी इन क्षेत्रों पर आते ही वीतराग मय भाव होते हैं। कोई भी कर्म करो, अहिंसा को दृष्टि में रखकर करो। यदि अहिंसा धर्म रहेगा तो स्वयं उन्नत होंगे और देश भी उन्नत होगा। भारत ही ऐसा देश है जो अपने धर्म कर्म को बेचने तैयार है। दया की बात अब शास्त्रों तक ही रह गई है तभी तो भारत से आज मांस निर्यात किया जा रहा है।

     

    प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य गुण सम्यक दृष्टि रखता है, अतः ऐसे महान् दया के कार्य सम्यक दृष्टि ही कर सकता है मिथ्या दृष्टि नहीं।

     

    आज जन जागरण की आवश्यकता है क्योंकि लोक तंत्र में लोक संग्रह की आवश्यकता होती है धन संग्रह की नहीं। अनेक पार्टी और अनेक विचारों वाले होने से दल दल हो रहा है। यदि आप अपने स्वार्थ के लिए वोट उन्हीं को दे रहे हैं जो हिंसा का कार्य करते हैं, जो मांस निर्यात करते हैं अथवा कराते हैं तो आप के द्वारा भी हिंसा का समर्थन हो गया ऐसा समझना चाहिए। आप लोगों को पार्टी या सत्ता के लिये नहीं, अपने देश के लिए समर्थन देना चाहिए।

     

    जिसके पास दया धर्म के प्रति अटूट श्रद्धान है वही बूचड़खानों को बंद करा सकते हैं। यदि इस प्रकार का हिंसात्मक कार्य आँखों देखा होता रहेगा तो नर्क का दृश्य यही आ जायेगा। अहिंसा धर्म के माध्यम से ही देश का संरक्षण हो सकता है गोला बारूद से नहीं।

     

    जब दया धर्म ही जीवन में नहीं तो आत्मा की बात कहाँ से आयेगी। दया धर्म के अभाव से अभी तो पशु से भी गया बीता जीवन जी रहे हैं। फिर आत्मा व परमात्मा की बात आयेगी कैसे ? आज अंडों को शाकाहारी घोषित किया जा रहा है उसे सिद्ध करने के लिए कहा जा रहा है कि उससे बच्चा उत्पन्न नहीं होता है। अंडों से बच्चे उत्पन्न हो अथवा न हो परन्तु वह मांसमय पिंड तो है ही। मांस को शाकाहारी कैसे कहें। जिसकी बुद्धि बिलकुल से खो गयी हो वही कह सकता है।

     

    धीवर ने प्राण छोड़ दिये पर प्रण नहीं छोड़ा। आप दोनों छोड़ने को तैयार हैं। जहाँ पर विवेक बुद्धि सुरक्षित है वहाँ दया धर्म है। ऐसे दया धर्म को बारंबार नमस्कार।

    दयारहित जो धर्म है, विनय रहित जो ज्ञान।

    समता बिन जप तप रहा, यथा देयनिष्प्राण।

    सम्यक दृष्टि जीव का, कोमल रहे स्वभाव।

    दीन दुखी को देखकर, धारे करुणा भाव।

    (विद्या स्तुतिशतक से)

    Edited by admin


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