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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • तपोवन देशना 8 - भीतर की डांट

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    एक व्यक्ति को डॉक्टर ने कहा कि इस दवाई को दिन में ३ बार पी लेना। उस व्यक्ति ने दवाई पीने के लिए डांट खोली और दवाई निकालना चाही, किन्तु दवाई नहीं निकली। दो-तीन बार प्रयास करने पर भी जब दवाई नहीं निकली, तब उसने सोचा इसमें दवाई नहीं है। इसी बीच दूसरे व्यक्ति ने कहा कि इसमें दवाई है परन्तु एक डांट और खोलना पड़ेगी तब दवाई निकलेगी। दवाई, डांट और शीशी का रंग एक सा होने से उसे ज्ञान नहीं हो रहा था। ज्ञान होते ही उस डांट को निकाल दिया गया और दवाई बाहर आ गई। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में दो प्रकार की डांट होती है एक बाहरी, दूसरी भीतरी। बाहरी डांट निकालना मात्र पर्याप्त नहीं है, किन्तु भीतरी डांट निकालना भी आवश्यक है। हमारे जीवन में भीतरी डांट राग, द्वेष, मोह, मात्सर्य आदि हैं जो आत्मा के साथ लगी हुई हैं। भीतरी डांट को दिखाया नहीं जा सकता, इसे महसूस करना पड़ता है।

     

    लक्षण प्रत्येक पदार्थ का होता है, जैसे काँटा लगा है उसके कुछ लक्षण हैं, पहला लक्षण जहाँ काँटा लगा है वहाँ दर्द होता है। दूसरा लक्षण काला निशान दिखाई देना। बिना लक्षण के काँटा निकलना असंभव है। इसी प्रकार लक्षण ज्ञात करके यह जानो कि क्या मेरा है क्या पराया है। अभी तक दुनिया का परिचय करते रहे और कहा यह भी मेरा है यह भी मेरा है किन्तु मेरा परिचय में नहीं आया, मेरी अनुभूति में नहीं आया। जब तक भीतरी डांट नहीं निकालते तब तक उसका परिचय, उसकी अनुभूति उसकी प्राप्ति नहीं होती।

     

    बाह्य परिग्रह बाहरी डांट है उसे खोलकर दान, पूजा, भक्ति आदि कर ली इतने मात्र से काम नहीं चलता। डांट बहुत सारी हैं जो निकल नहीं रही हैं, इसी कारण अमृत औषधि को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। इन तीर्थ क्षेत्रों पर रह कर अनेकों तपस्वियों ने अपनी भीतरी डांट निकाली है। अत: ये क्षेत्र भीतरी डांट निकालने के लिये होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को वृद्धावस्था में उत्साह नहीं रहता अत: वृद्धावस्था के पूर्व डॉट निकालने कमर कस कर सामने आना चाहिए, जब कमर ही टेडी हो जाये तब फिर कमर कैसे कस पाओगे।

     

    भगवान् महावीर स्वामी ने कहा, मूच्छा परिग्रहा। मूछों ही परिग्रह है, जो बहुत खतरनाक है। यदि मूछों की अवधि बढ़ जाती है तो वह आपरेशन से भी ज्यादा खतरनाक हो जाती है। वह मृत्यु के लिए कारण हो सकती है। मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है ? वह पहचान भी मूच्छा के कारण नहीं हो पाती है। जो समझना चाहता है किन्तु प्रयास करने पर भी समझ नहीं पाता तो उसकी गलती नहीं, उसके पूर्व कृत कर्मों का प्रतिफल है।

     

    किसी कार्य को करने के लिए रुचि होना आवश्यक है और क्या करना, कैसे करना, क्यों करना? ये कुछ ३-४ प्रश्न, कार्य करने के पूर्व समझना भी आवश्यक है। जिस क्षेत्र में जो सीनियर है उस क्षेत्र में प्रवेश करने वालों को उस सीनियर से पूछना चाहिए। जिसे उस क्षेत्र का ज्ञान ही नहीं वह दूसरों को कैसे रास्ता बता सकता है। इसीलिए जिसने डांट निकालने का प्रयास ही नहीं किया, उससे डांट निकालने की सलाह नहीं लेना चाहिए।

     

    भूख डालने की बात नहीं भूख लगने की बात होती है। यदि मंदाग्नि है तो भोजन और भोजन की प्रशंसा व्यर्थ जाती है। आज भोजन पचाने के लिए दवाई, भूख बढ़ाने के लिए दवाई, शौच जाने के लिए दवाई, नींद लाने के लिए दवाई। इस प्रकार भोजन कम दवाई ज्यादा ले रहे है ये लक्षण अपव्यय के हैं। पहले जो ज्यादा भोजन किया उसी के करने से ही शरीर निकम्मा हो गया है। शरीर निकम्मा हो जाने से ही दवाई खा रहे हैं। यदि दवाई ही खुराक बन जाये तो छूटना मुश्किल होता है।

     

    जैसे कैपसूल के भीतर दवाई होती है और ऊपर से डांट होती है। कैपसूल की दवाई शीघ्र काम करती है क्योंकि उसके पास डांट होती है जिससे बाहरी प्रभाव उसके ऊपर नहीं पड़ता। कैपसूल पेट में जाते ही ऊपर का केप घुल जाता है और दवाई बाहर आती है। तो अपना प्रभाव शरीर पर एटम बम्ब के समान छोड़ता है। यदि उसका केप (डांट) ही न गले तो दवाई काम नहीं कर सकती। स्वाध्याय भी एक कैपसूल है। जो कुंद कुंद के समयसार रूपी कैपसूल खा रहे फिर भी काम नहीं कर रहा, क्योंकि समयसार का कैपसूल घुल नहीं रहा और दवाई ज्यों की त्यों रह रही है इसीलिए अब उन्हें रत्नकरण्डक श्रावकाचार का चूर्ण ही पर्याप्त है। उसी से पेट साफ होगा, भूख बढ़ेगी। कैपसूल तो औषधि नहीं किन्तु दवाई रखने का एक केप (साधना) है। आज दवाई की एक्सपायर डेट होती है इसी प्रकार धर्म कर्म की भी एक अवधि होती है इसीलिये आज धर्म की ऐसी टेबलेट बनाना चाहिए जिससे दूसरों पर एवं स्वयं पर अच्छा प्रभाव पड़े।

     

    धार्मिक क्षेत्र में मात्र बाहरी परिणाम नहीं भीतरी परिणाम (रिजल्ट) भी देखना चाहिए। आज आर्टिफिशियल धर्म हो रहा है जैसे नेलपॉलिस, लिपिस्टिक लगाकर आर्टिफिशियल ओठ और नाखून दिखाना चाहते है। इसे मैं मात्र प्रदर्शन मानता हूँ। उत्साह भीतर से होना चाहिए एक के उत्साहित होने पर दूसरे को उत्साह आ सकता है। भीतर से उत्साह होने पर भूख प्यास में भी तेज टपकता रहता है। यदि धर्मात्मा खाये पिये फिर भी टी-बी- जैसे मरीज बने रहे तो देखने वालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? हमारे भगवान् कोई श्रृंगार नहीं करते फिर भी शरीर पर तेज बना रहता है, वीतरागता टपकती रहती है।

     

    राग द्वेष मद मत्सर कम करने से एक अलग तृप्ति होगी। एक अलग अनुभव होगा, एक अलग आनंद आयेगा। जो क्रोधादि कषाय को पी लेगा उसकी शक्ति बढ़ जायेगी और जो करेगा उसे वह क्रोधादि कषाय पी जायेगी, उसकी शक्ति समाप्त हो जायेगी।

     

    नील कंठ का नाम शिव कहा क्योंकि वो विष को भी पचा लेता है। यदि कषाय शांत हो और मन प्रसन्न हो तो विष खाने पर भी पेट में जाकर अमृत बन सकता है और यदि कषाय काम कर रही है तो अमृत भी विष का काम करता है यहाँ कषाय का अर्थ उद्विग्नता है। उद्विग्नता व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। जो चीज हमारे लिए हानिकारक है उसका ज्ञान पहले आवश्यक है। जैसे औषधि विपरीत होती चली जा रही है उसी प्रकार आज धर्म भी विपरीत होता चला जा रहा है। आज ऐसी धारणा बनती चली जा रही है कि अर्थ के द्वारा धर्म होता है इसीलिए धर्म पर कम, अर्थ पर ज्यादा विश्वास हो रहा है और धर्म को कम, अर्थ को ज्यादा समय दिया जा रहा है।

    डांट लगाने से सदा, अपयश और विनाश।

    नहीं डॉट खाना बुरा, सद्गुण होत विकास॥

    शीशी शिष्य समान है, डांट चाहिए दोय।

    दोनों की बिन डांट के, कभी न कीमत होय।

    (विद्या स्तुतिशतक से)

    Edited by admin


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