युग के आदि से धर्म अक्षुण्ण रूप से आया तो है लेकिन नदी के प्रवाह के समान बीच-बीच में अलग-अलग परिस्थितियाँ बनती रहती हैं। युग के आदि में वृषभनाथ ने राज्य करके अपने दोनों पुत्रों के लिए अपनी भूमि दो भागों बाँट दी लेकिन चक्रवर्ती पद पिता से नहीं मिला और मिल भी नहीं सकता। वह स्वयं पुरुषार्थ कर पुण्यार्जन से प्राप्त होता है। तीर्थकर का पुत्र चक्रवर्ती तो हो सकता है लेकिन तीर्थकर पद अपने बेटे को नहीं दे सकता।
आदिनाथ दीक्षा लेकर मौन बैठ गए। उसी बीच दो बालक जाकर आदिनाथ स्वामी के सामने बैठ गए और इंतजार करने लगे कि दादाजी अब उटेंगे, अब उटेंगे, परन्तु नहीं उठे तब देवों ने अपना रूप परिवर्तित करते हुए सामने आकर कहा भगवान् ध्यान में लीन हैं। वे बोलेंगे नहीं, बैठने से पूर्व कह दिया कि तुम्हें विजयार्ध की श्रेणी में जमीन दी गई उन बालकों ने सहज सरल भाव से कहा हम तो दादाजी से ही लेंगे। ऐसी सरलता थी पूर्व में। आदिकाल में (दोनों बालक आदिनाथ के साले के पुत्र थे एक का नाम नमि दूसरे का नाम विनमि था इन्हीं से विद्याधरों का उद्भव हुआ)
युग के आदि में कैसा वातावरण था और आज कैसा है उसका चित्रण मूलाचार में भी किया गया है। युग के आदि में जैसा भोलापन और सीधापन था वैसा आज देखने को नहीं मिलता। आदिम तीर्थकर और अंतिम तीर्थकर के बारे में बहुत सी विशेषताएँ रहीं हैं। प्रथम तीर्थकर के काल में मंद बुद्धि वाले थे, परन्तु सरल स्वभावी थे महावीर के काल वाले कुटिल हैं इनकी बुद्धि सीधी नहीं, बल्कि उल्टी चलती है इनकी भूतों की चाल है आज तो ये जानते नहीं मानते नहीं और ऊपर से तानते भी हैं।
जब भगवान् महावीर स्वामी थे तब वे उन कुटिल बुद्धि वालों को संभाले हुए थे, लेकिन आज संभालने वाला नहीं है। आज कितना भी धार्मिक वातावरण बना लिया जाता है, फिर भी धर्म के संस्कार नहीं पड़ रहे हैं। हिंगड़े के डिब्बे में से हिंगड़ा निकाल कर साफ कर दो और उसमें कस्तूरी रख दो, तो वह हिंगड़ा भी अपना प्रभाव डालता है। उसी प्रकार आज बच्चों को कितने अच्छे संस्कार दो, तो भी वह कुसंस्कार रूपी हिंगड़ा छूटत नहीं है।
इस युग में जितने भी विकास हो रहे हैं वे सब दुर्बुद्धी के कारण बना रहे हैं। आज जैसे जैसे भवनों में विराटता आ रही है, मंजिलें बढ़ती जा रहीं हैं वैसे वैसे पाप की विराटता बढ़ती जा रही है। आज एक नंबर का पैसा नहीं रहा, दो नम्बर का पैसा है। इसी प्रकार आज संस्कारों में वृद्धि की जा रही है, रक्षक भी आज भक्षक बनता जा रहा है, ऐसी स्थिति में हम भाग्य को या काल को दोष देकर पुरुषार्थ करना भूलते जा रहे हैं। इसीलिए संत कहते हैं ऐसा काम चलने वाला नहीं है और काल वान को देखकर पुरुषार्थ करके उन दुर्बुद्धि वालों में सुबुद्धी डालना होगा तभी ये मार्ग सुरक्षित रह सकता है।
पहले स्वेच्छा से दिया हुआ ही लिया जाता था किन्तु आज देने वाले की इच्छा न होते हुए भी जबरदस्ती (बाह्य करके) लिया जाता है ऐसा इसलिए हो गया है कि अर्थ प्रधान हो गया है और परमार्थ गौण हो गया है। हमें सीख के लिए उस ओर दृष्टिपात करना होगा जिस ओर का संकेत गुरुओं का मिला है। गुरुओं की वाणी मार्ग में उत्पन्न होने वाले बाधक तत्वों को दूर करती है। कितने भी बाधक तत्व साधना में सामने हो यदि गुरु की वाणी हमारे सामने हो, तो बाधक कारण अपने आप अलग हो जायेंगे और गाड़ी आगे बढ़ती जायेगी। पथ पर चलने से बाधक कारण आते हैं, लेकिन उनको दूर करने के लिए कुंदकुंदाचार्य महाराज ने चार उपकरण बतायें है। मार्ग पर आरूढ़ साधक (श्रमण) इसे पाथेय (नाश्ता) समझ कर चलें
- जिन लिंग-साधक यथाजात बालकवत् जो निर्दोष जिन लिंग का भेष है उसे धारण किए रहें। श्रावक भी यथा शक्ति मोक्ष मार्ग पर चलता है उसे भी श्रावक धर्म निर्दोष रूप से पालन करना चाहिए।
- विनय-विनय नय के साथ चलता है। नय का अर्थ भगवान् जहाँ तक पहुँचे वहाँ तक पहुँचा दे। यदि हमारे पास विनय है तो हम निश्चित रूप से भगवान् के पास पहुँच सकते हैं।
- गुरु वयण (गुरु के वचन)-जैसे माँ अपने शिशु से जो कहती है शिशु वह मानता है वैसे ही शिष्य को गुरु की बात मानना चाहिए। गुरु और माँ ऐसे वचन देते हैं जो हमेशा कानों में गूंजते रहते है। कर्ण की माँ ने कहा बेटा गंगा के पास नहीं जाना। बेटे ने भी कह दिया अच्छा माँ ठीक है, किन्तु जब गंगा पार करने की बात आयी तब कर्ण विजयी होकर घर आया और उसके कानों में माँ के शब्द गूंजते रहे। गुरु के वचन मोक्ष मार्ग पर याद रखना सबसे बड़ी विनय है। गुरु के बाद श्रुत की विनय आती है।
- श्रुताभ्यास-आज सूत्र का अभ्यास है, किन्तु शेष तीनों बातें समाप्त होती चली जा रहीं हैं युग के आदि में ऐसा नहीं था। जैसा आगम में कहा गया और गुरु द्वारा संकेत किया गया वैसा करना पड़ता है तब अनुभव प्राप्त होता है। अनुभव परम आवश्यक है, परन्तु अनुभवपने आप नहीं आते वह तो चलते समय ही आते हैं। होने में और रहने में बहुत अंतर है। हैं से होने वाली यात्रा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। होने में परिश्रम लगता है। होने में और रहने में वैसा अंतर है जैसे पानी जमीन में है इस प्रकार पानी के होने में और खोद कर फिर उसे कुएँ में बनायें रखने में। जमीन में पानी है पर उसे कुएँ में बनाये रखना बहुत कठिन है। हम में शक्ति है, युक्ति नहीं। हम हैं, हुए नहीं। ये तभी संभव है जब चार चीजें जीवन में हों।
आज का बच्चा एक कार्य के कहने पर दस कार्य करता है, परन्तु न करने योग्य ही कार्य करता है और अपनी माँ को एक पंथ दो काज वाली बात सुनाता है। आज हम लोग दोषों के पुंज हैं, हर कार्य में दोष ही दोष लगते हैं इसलिए दिन में तीन बार प्रतिक्रमण करने की आज्ञा है। आगे तो और भी अंधकार आने वाला है। जबकि २२वें तीर्थकर तक की परंपरा वालों को कोई दोष ही नहीं लगते थे।
आज जो धुंधलापन आया है और आगे जो अंधकार आने वाला है उसमें कारण यह है कि आज का युग अर्थ की ओर मुड़ गया है। परमार्थ गौण हो गया है धुंधलेपन में तो फिर भी दिख सकता है। किन्तु जब आँखों में धूल चली जाये तो दिखना बंद हो जाता है। आज धूल घुस गयी है और कर्तव्य अकर्तव्य कुछ दिख नहीं रहा है। यदि आँखों की धूल अलग करना चाहते हो तो आचार्य कुंदकुन्द स्वामी की चार बातों को जीवन में उतारना चाहिए। इस क्षणभंगुर जीवन का सदुपयोग करो। अहिंसा की ओर कदम बढ़ाओ और विषय भोगों से पीठ फेर लेने में ही जीवन की सार्थकता है।
सीधे सीधे सिझ गये, बने सिद्ध भगवंत।
टेड़े सब संसार में, खड़े अनंतानंत।
गुरुओं के आदेश में, ना तो तर्क वितर्क।
कर सहर्ष स्वीकार वह, पालन करो सतर्क।
(विद्या वैभवशतक से)
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