१४-०१-२०१६
मानपुरा ग्राम (भीलवाड़ा राजः)
पूज्यपाद नरपति प्रधान गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के शिवगामिन् चरण कमलों की वंदना करता हूँ।
हे जीवननिर्माण कलाविज्ञ गुरुवर! आज आपको वह बात लिख रहा हूँ जो लौकिक होकर भी अलौकिक है। चलचित्र को देखकर अचल चित्त करना और फिर उससे अपने जीवन का निर्माण करना। यह अनोखी कला तो कोई आपके इस शिष्य से सीखे। वो मित्रों के साथ क्या-क्या करते थे मुझे विद्याधर के बड़े भाई जी ने बताया-
लौकिकता में भी अलौकिकता की खोज
‘‘विद्याधर अपने मित्र मारुति मडीवाल, पुण्डलीक मूतनाड़े, शिवकुमार हालप्पनवर आदि साथियों के साथ मेले देखने जाता था। पिताजी उसे पैसे देते थे, किन्तु वह वहाँ पर कोई चीज खरीदता नहीं था। सदलगा में या बेड़कीहाल में जब सर्कस आता था तब विद्याधर मित्रों के साथ देखने जाता था। फिर घर आकर सर्कस के समान साईकिल चलाने की कोशिश करता था। धीरे-धीरे वह संतुलन बना लेता था।
दो बार घर से मित्रों के साथ साईकिल पर २१ कि.मी. चिक्कौड़ी (तहसील) गया था। वहाँ पर पाण्डालनुमा प्रभात टॉकीज (थियेटर) आते थे। उसमें फिल्म देखने गया था। पहली बार ‘झनक-झनक पायल बाजे' 'फिल्म देखी और दूसरी बार "नागिन (पुरानी)" फिल्म देखी थी।एक बार मित्रों के साथ बैठकर चर्चा कर रहा था तब और किसी अन्य समय मंदिर जी में स्वाध्याय के समय फिल्म की कहानी की शिक्षा को उदाहरण देकर समझा रहा था। उसकी इस कला को देखकर मुझे बड़ा गौरव होता था।” इस तरह विद्याधर खेल-खेल में भी जीवन का संतुलन बनाने लगा था। हर घटना, कथा - कहानी, नाटक या चलचित्रों (फिल्मों) से शिक्षा लेता और जीवन निर्माण की कला सीखता जा रहा था। ऐसे कलाविज्ञ को आपने पहचाना और तराशकर पारलौकिक कलाविज्ञ बनाया आपके श्रीचरणों में नमोस्तु करता हुआ...
आपका
शिष्यानुशिष्य