२0-०१-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा
माण्डलगढ़ (राजः)
स्फटिक के समान निर्मल, जौहरी के समान परीक्षक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु...
हे कर्तव्य परायण गुरुवर ! विद्याधर के जीवन की खुली किताब के कोई भी पन्ने को पढ़ो तो उसमें उसकी गुण विशिष्ट सुगन्धी से मन तरोताजा हो उठता है। महापुरुषत्व की विशेषताओं से उसके जीवन का हर अध्याय भरा पड़ा है। आज आपको विद्याधर की स्वर साधना के बारे में लिख रहा हूँ। एक दिन बड़े भाई महावीर जी ने अपनी स्मृति का एक अध्याय पढ़कर बताया-
विद्याधर मधुर वाणी के गायक
“विद्याधर का स्वर बहुत मधुर था। उसके मुख से हमने कभी भी फिल्मी गाने तो नहीं सुने किन्तु भगवान् के भजन, भक्तामर, सहस्रनामस्तोत्र, रत्नाकर वर्णी का रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक एवं सोमेश्वर शतक; वह बड़े ही मधुर-सुरीली आवाज में गाता था। जिसकी प्रशंसा सभी लोग किया करते थे। इसी कारण माँ उसे अत्यधिक प्रेम भी करती थी। कलबसदि (मंदिर) में भी वह भजन एवं स्तोत्र गायन किया करता था और वहाँ पर जो हार्मोनियम बजाते थे उनसे हार्मोनियम बजाना सीख लिया। थोड़ा-थोड़ा बजाना आने लगा था। यह संस्कार उसे माँ से प्राप्त हुआ था। माँ को बचपन से ही सुरीली आवाज में भजन गाने का शौक था।" इस तरह एक महापुरुष के आकर्षक व्यक्तित्व में वाणी की मधुरता और गायन कला भी विशेष स्थान रखती हैं। जो विद्याधर के व्यक्तित्व में जन्म से ही जुड़ी हुई थी। ऐसे जिनगुण गायक को नमन करता हूँ और जब तक कण्ठ में स्वर हैं तब तक मैं भी जिनेन्द्र प्रभु के एवं गुरु के गुणगान करता रहूँ, इस आशीर्वाद का भिखारी...
आपका
शिष्यानुशिष्य