१९-०१-२०१६ वेदीप्रतिष्ठा
माण्डलगढ़ (राजः)
पुण्यवान् नरप्रवर जग उद्धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को त्रिकाल वंदन करता हूँ....
हे तपोधन! चाहे तीर्थंकरों की माँ हो या महापुरुषों की माँ हो हर अच्छे व्यक्तित्व निर्माण में एक अच्छी माँ का हाथ हुआ करता है। उसी प्रकार विद्याधर के व्यक्तित्व निर्माण में भी माता श्रीमन्ती जी के अलौकिक स्नेहमयी हाथों की थपथपी थी। इस सम्बन्ध में मुझे विद्याधर के अग्रज भाई जी ने जो बताया वह लिख रहा हूँ-
माँ से मिला खान-पान का विवेक
“विद्याधर आदि हम सभी ने बचपन से ही जमीकंद-आलू, प्याज, लहसुन, शकरकंद आदि नहीं खाया। इस कारण कभी होटल नहीं जाते थे और न ही होटल का कुछ ख़ाते थे क्योंकि अक्का (माँ) ने हम लोगों को बचपन से ही ऐसे संस्कार दिए थे। वह कहती थी- 'बाजार में मिलने वाली वस्तु शुद्ध नहीं होती और बनाने वाले भी शुद्ध नहीं होते। इससे अपना शरीर और मन दोनों ही खराब होते हैं।’
अक्का ने ऐसे संस्कार दिए कि विद्याधर आदि हम सभी ने कभी भी रात्रि में कुछ नहीं खाया। यदि कभी पानी की आवश्यकता पड़ती थी तो मात्र पानी पीते थे। तब भी अक्का बोलती थी’ रात्रि में पानी पीना भी पाप है जल्दी पी लिया करो। जिससे रात्रि में प्यास न लगे'।” इस तरह विद्याधर ने भोजन की सात्विकता से जीवन की सात्विकता के संस्कार पाये थे। रसना इन्द्रिय को जो नहीं जीत पाता, वह कामेन्द्रिय पर भी विजय प्राप्त नहीं कर पाता। माता श्रीमन्ती ने प्रतिपल दिव्य अनोखे संस्कारों का बीजारोपण किया था। ऐसी माँ हर किसी को मिले इस शुभ भावना के साथ। नमोस्तु गुरुवर....
आपका
शिष्यानुशिष्य