२५-०१-२०१६
चेची (राजः)
ब्रह्माण्डी ज्ञानऊर्जा धारक गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज आपके ज्ञानाचरण को नमन करता हूँ…
हे गुरुवर! दया अहिंसा की माँ है, दया ही अहिंसा में परिणत होती हैं। विद्याधर सहज उत्पन्न दया के भण्डार थे। यही कारण है कि विद्याधर की शुद्ध दया ही अहिंसा महाव्रत में परिणत हुई। इस सम्बन्ध में मुनि योगसागर जी महाराज (विद्याधर के गृहस्थ अवस्था के छोटे भाई अनन्तनाथ) ने बताया-
दयालु विद्याधर ने जीवों को बचाने का लिया संकल्प
“जैसे दूध में घी तैरता है वैसे ही भव्य पुरुष के हृदय में दया स्वाभाविक रूप से तैरती हुई नजर आती है। दया-अहिंसा, परोपकार को जन्म देती है। योगियों की योग्यता का मापदण्ड दया है। बचपन की दया ने विद्याधर को दया का सागर विद्यासागर बना दिया। बचपन में एक बार विद्याधर ने घर के एक कोने में चूहे का एक बड़ा बिल देखा उसमें नवजात चूहे का बच्चा तड़प रहा था। उसके शरीर पर लाल चीटियाँ काट रहीं थीं। देखते ही विद्याधर ने शिशु चूहे को अपने हाथों में उठा लिया और एक-एक करके चीटियों को फूँक से उड़ा दिया। वह शिशु चूहा बच गया। उसी समय माँ ने देखा और पूछा-क्या कर रहे हो? विद्याधर ने बताया, तब माँ बोली यह तिर्यंच गति दुःख की गति है, इस प्रकार से तिर्यंच जीव संसार में सदा दुःख उठाते हैं। दु:खी जीवों पर दया करना अच्छी बात है, किन्तु शिक्षा भी लेना चाहिए, ऐसी गति में जाने से बचना चाहिए। विद्याधर ने माँ को कहा-‘मैं सदा दु:खी जीवों को बचाऊँगा और ऐसे कोई कार्य नहीं करूँगा जिससे तिर्यंच गति में जाना पड़े तथा उस शिशु चूहे को ऊँचे स्थान पर रख दिया जिससे अन्य जीव उसे पीड़ा न पहुँचा पायें।" इस प्रकार आज आपके दिव्य शिष्य की प्रेरणा से सैकड़ों गौ शालाएँ संचालित हो गईं हैं। जहाँ पर कत्लखानों से लक्षाधिक गौ वंश को बचाया गया है। बचपन की दया आज दया का सागर बन गई है। ऐसे अहिंसा के पुजारी गुरुवर को नमोस्तु....
आपका
शिष्यानुशिष्य