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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. माटी को चिकनाहट की चरम सीमा पर पहुँचाने शिल्पी माटी के पास आ रहा है। इधर माटी में पड़ा एक काँटा बदले का भाव ले शिल्पी को देख रहा है, चकित चोर-सा। माटी खोदते समय इस पर कुदाली की मार पड़ी थी, सो कटा-टूटा हुआ भी बलवान बना काँटा। काँटे के बदले का भाव बदल जाय, इसी उद्देश्य से माटी काँटे के मन में पैदा हुआ बदले का भाव दल-दल, अनल, राहु के समान कष्टदायी है, दशानन का नाम ‘रावण' भी इसी कारण पड़ा। माटी की बात सुन काँटे माटी से कहते हैं कि हमें सदा बुराई की दृष्टि से ना देखो, हमारे गुणों की ओर भी ध्यान हो। हमारी कठिन चुभन से कली खिलती, वीतरागता की सीख मिलती, महादेव(अरिहंत)ने हमें स्वीकारा है और काम को जलाया है। स्थान एवं समय सूचक यन्त्रों में भी हमारी उपयोगिता सिद्ध है, अत: शिल्पी की मति में परिवर्तन हो, कम से कम क्षमा याचना तो हो। माटी काँटों को शिल्पी के स्वभाव से परिचित कराती है, शिल्पी स्वयं ही काँटों से क्षमायाचना करता है जिसके फलस्वरूप काँटे के मन में भरा बदले का भाव शान्त हो, नष्ट हो जाता है। क्रोध का शमन, बोध का आगमन और शोध भाव की जागृति हुई, प्राकृत विषय को और स्पष्ट करती है लेखनी शब्द का बोध हो और बोध से शोध हो तब निराकुलता फलती है। सो पश्चाताप के साथ कंटक अपनी भूल स्वीकारता हुआ एक अच्छे मन्त्र की माँग करता है शिल्पी से। शिल्पी मन्त्र की समीचीन विधा कहता है। पुन: मोह, मोक्ष की लक्षणा, साहित्य की व्याख्या पूछता है काँटा, शिल्पी द्वारा समाधान पा आनन्द में डूबा नृत्य करता है टूटा-फूटा काँटा और अन्त में देह संस्कार का कारण। पानी को पीते ही माटी फूल की पांखुड़ियों की तरह पूरी फूल चुकी है, माटी का यह फूलन ही चिकनाहट, प्रेम भाव प्राप्ति का प्रथम चरण, जड़ के समान है। माटी में रूखेपन, द्वेषमय भावों का अभाव जड़ उखाड़ने के समान है। शिल्पी विचारता है माटी ने जल-पान तो किया, किन्तु जल धारण करने, जल को आधार देने की क्षमता इसमें कब उभरेगी? स्वयं ही समाधान करता है जब इसकी चिकनाई चरमता को प्राप्त होगी एवं आग को पिएगी। यह तभी सम्भव है।
  2. इसलिए प्रकृति यानि स्वभाव (अपनेपन) में लीन होना ही मुक्ति है मोक्ष है और निज स्वभाव (जानने-देखने रूप गुण) को छोड़ अन्य पर पदार्थों में रागद्वेष करना ही मोह है, संसार का कारण। सन्तों ने मात्र बाहरी पुरुषार्थ, उद्यमहीनता को ही कायरता नहीं माना अपितु शरीर के प्रति आसक्ति होना, मन के गुलाम हो, विषयों को भोगने में लिप्त रहना ही सही अर्थ में कायरता है। यदि काय और कायरता दोनों को दूर करना चाहते हों तो सुनो! मन को एकाग्र कर – "अकाय में रत हो जा! काय और कायरता ये दोनों अन्त-काल की गोद में विलीन हों आगामी अनन्तकाल के लिए!" (पृ. 94) सिद्धप्रभु की भक्ति, आत्मस्वरूप में लीनता ही काय और कायरता को अनन्तकाल के लिए नष्ट कर सकती है, अत: देह रहित आत्म तत्व में लीन होकर ही काय का अन्त किया जा सकता है एवं शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है। 1. बाहरी परिग्रह = सोना, चाँदी, मकान, खेत, पशु, धान्य, नौकर, बर्तन, कपड़ा, किराना आदि।
  3. प्रभु की दासता को छोड़ जिन्होंने इन्द्रियों की दासता स्वीकार की है, वे शरीर से बलशाली होते हुए भी बलहीन ही हैं। विश्व-विजेता सम्राट सिंकदर को यह बात समझ आ गई थी कि मैं दुनिया को तो जीतने निकला हूँ किन्तु मैंने अपने आपको नहीं जीता तो मेरा बल किस काम का और वह वापस अपने देश लौट गया था किन्तु कर्म की बलिहारी देश पहुँचने के पहले ही उसने देह छोड़ दिया। शिल्पी कहता है- जिनका मनोबल कमजोर है, उन्हें ही कम्बल की जरूरत होती है। प्रभु की निकटता ही हमारे लिए सहारा, सम्बल है। हमें कम्बल की जरूरत नहीं केवल एक सूती चादर से ही हमारा काम चल जाता है। दूसरी बात यह है जिनकी प्रकृति उष्ण हो, भीतर कषायों का उद्वेग, संयम का अभाव हो जिनमें, वे ही ठण्ड से भयभीत एवं नम्रता से रहित होते हैं। मेरी प्रकृति और ऋतु की प्रकृति दोनों ही एक जैसी शीतल हैं, अत: अपनी जीवन-यात्रा यूँ ही सहज चलती जा रही है। प्रकृति की गोद में प्राकृतिक रूप में रहना ही हमें अच्छा लगता है, इसी में हमारा कल्याण है और यह भी समझना होगा कि – "पुरुष प्रकृति से यदि दूर होगा निश्चित ही वह विकृति का पूर होगा।" (पृ. 93) प्रकृति रूप (दिगम्बरत्व) को धारण कर, प्रकृति की गोद में रहने वाला श्रमण ही सच्चे सुख की अनुभूति करता हुआ आत्यन्तिक स्वास्थ्य (मोक्ष) को प्राप्त करता है, कर सकता है। जो प्रकृति से दूर हो, अनेक प्रकार के बाहरी परिग्रह" को अंगीकार करता है वह सदा विकारी भावों (शारीरिक-मानसिक दुख, कषायों की बहुलता) को प्राप्त होता रहता है।
  4. ठंड की ऋतु (मौसम) है वह भी अपने प्राकृतिक (स्वभाविक) रूप में नहीं है। पेड़-पौधों की प्रत्येक डाल पर, पत्तों पर बर्फ गिर रही है और गिरते बर्फ के साथ-साथ जोरदार हवा भी चल रही है। ऐसी परिस्थिति में सुन्दर कोमल-कोमल काया वाली लता-लतिकाएँ शीत लहर के स्पर्श से पीली-पीली पड़ने लगी हैं एवं जल-सी गई हैं। ऐसे मौसम में सबके शरीर प्राय: कपकपी का अनुभव कर रहे हैं किन्तु ऐसा कौन पुरुष है वह? जिसका हृदय अनुकम्पा, प्राणि मात्र के प्रति दया का भाव ले कांप रहा हो, कहाँ रह रहा है वह? उस परम दयालु परम पुरुष की कृपा, श्रेष्ठ दया की वर्षा इस धरा पर कब होती है कहा नहीं जा सकता। इधर ठंड के कारण सभी के दाँत किट-किटा रहे हैं, मानो नाच रहे हैं, अभ्यासी नर्तक के समान। पता नहीं किसने, कब इनको नृत्य-कला की दीक्षाशिक्षा और प्रशिक्षण दिया था। दिन भी छोटे हो गये हैं सूर्य की तेजस्विता भी डरती-सी यहाँ-वहाँ बिखर-सी गई है। उसका ताप शरीर को महसूस नहीं हो रहा है, लगता है मानो सूर्य ऊपर गगन में रहकर भी ठंड के सामने नतमस्तक हो चुका है अर्थात् हार मान चुका है। पृथ्वी में सब ओर जहाँ कहीं भी देखो, ठंड का ही प्रभाव दिख रहा है। भौंरे के घने नीले रंग को भी पराजित करने वाली, शनि (काले रंग का प्रतीक) को पैदा करने वाली, भय, घमंड और पापों को जन्म देने वाली रात्रि दुगुणी लंबी हो गई है। यह शिशिर का मौसम सभी को कष्टदायी प्रतीत हो रहा है। पर इस समय भी एक विशेष बात यह है कि-मात्र एक सूती चादर ओढ़े शिल्पी की रात सहज रूप से व्यतीत हो रही है, किसी प्रकार की आकुलता मन में नहीं है और ना ही ठंड को कोई विकल्प। बाहर पड़ी हुई माटी लेटे हुए शिल्पी को देख रही है और व्यवहारिकता के वशीभूत हो शिल्पी से कुछ कहती है, वहीं से पड़े-पड़े। शरीर तो शरीर है पुद्गल से उत्पन्न पुद्गल की पर्याय, धर्म का साधन, उपकरण भी है, इसलिए कम से कम तन पर एक गरम कम्बल तो ले ही लो ना ! ताकि..... इतना कहकर माटी चुप हो जाती है। माटी की बात सुनकर शिल्पी तुरन्त कुछ कहता है जिसे सुनती है माटी – "कम बलवाले ही कम्बल वाले होते हैं और काम के दास होते हैं। हम बलवाले हैं राम के दास होते हैं और राम के पास सोते हैं। "(पृ. 92)
  5. कुंकुम के समान मुलायम माटी में शिल्पी ने छना हुआ स्वच्छ जल मिलाया। जल मिलाते ही माटी के कण-कण में नई चेतना, नया परिवर्तन हुआ। कण-कण में बिखरी माटी एक रूप हो गई, प्रसन्नता से फूलने लगी, इधर जल के जीवन में भी नया अनुभव हुआ। बहाव रूप जल का स्वभाव था, सो इस समय ठहराव का अनुभव हो रहा है। "माटी के प्राणों में जा, पानी ने वहाँ नव-प्राण पाये हैं, ज्ञानी के पदों में जा अज्ञानी ने जहाँ नव-ज्ञान पाया है। अस्थिर को स्थिरता मिलनी अचिर को चिरता मिली नव-नूतन परिवर्तन." (प्र. 89) यथा अज्ञानी भी ज्ञानी के चरणों की शरण में जा नया ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तथा यानी उसी प्रकार स्थिर स्वभाव वाली माटी की संगति प्राप्त कर बहाव स्वभाव वाला जल भी स्थिर स्वभाव वाला बना, क्षण भंगुर जीवन शाश्वतता से जुड़ा, जल ने नए प्राण पाए। ज्ञानी वह नहीं जो बहुत शास्त्रों का ज्ञाता हो, ज्ञानी वह है जो आत्मस्थ हो, विषयों के बहाव में न बहता हो, इन्द्रियविजयी, शान्त परिणामी हो। सम्यग्ज्ञानी योगियों की शरण को प्राप्त कर अंजनचोर भी निरंजन (सिद्ध) बना, अपढ़ शिवभूति मुनि महाराज अनन्तज्ञानी बने। शरीर के भीतर विराजित चेतन की इस क्रियाशीलता का, अनन्त कालीन नर्तन का दर्शन कौन-सी आँखों को संभव है, किसकी और कहाँ है वे आँखें? यह सब रहस्य जानना है।
  6. छने जल को शिल्पी, छनी माटी में मिलाता है, जल को नया जीवन मिला और शीतकाल के मौसम की बात-हिमपात के साथ शीतलहर चल रही है। शिल्पी की रात सूती चादर में कटती देख माटी का निवेदन शिल्पी से-तन पर कम्बल तो ले लें। शिल्पी का जवाब -कम बल वाले ही कम्बल लेते हैं। पुरुष और प्रकृति की बात। काय, काय-रता और कायरता के विलीन की चर्चा।
  7. अन्त-अन्त में यही बात तुमसे कहनी है बेटा! कि अपने जीवन में छली-कपटी मछलियों सी छली-मायावी नहीं बनना। कभी भी पच्चेंद्रियों के विषयों की लहरों में भूलकर भी नहीं बहना, संयम रखना। और सुनो बेटा! सदा मासूम बालकवत् सहज और सरल बने रहना, सरल परिणाम ही समाधि को जन्म देता है। और माटी संकेत करती है शिल्पी को इस भव्यात्मा को शीघ्र ही सुरक्षा के साथ कूप में पहुँचा दो, क्योंकि जल ही इसका जीवन है, बिना जल के इसके प्राण टिक न सकेंगे। इसकी यदि मृत्यु हो गई तो दोष के भागीदार आपको बनना पड़ेगा, जिसका फल असहनीय दुख होगा। शिल्पी ने जल छान लिया। छने के ऊपर बचे जलीय जन्तु तथा मछली को, बाल्टी में शुद्ध जल डालकर (बिलछानी करते हुए) सावधानी के साथ कुएँ में सुरक्षित पहुँचा देता है। कुएँ में एक बार फिर “दया विसुद्धो धम्मो" ध्वनि गूंजती है जो कि ध्वनि से ध्वनि प्रतिध्वनि के रूप में परिवर्तित हो कुएँ की दीवारों से टकराती-टकराती ऊपर आती है और उपाश्रम के प्रांगण में लीन हो जाती है।
  8. समाधि और सल्लेखना की बात सुनकर मुस्कुराती हुई माटी कहती है - सल्लेखना का अर्थ शरीर और क्रोधादि कषायों को कृश, कम करना होता है बेटा! शरीर को सुखाने से कषायें भी कम होने लगती हैं, कम होना ही चाहिए। शरीर सूख जाए, किन्तु कषाय कम ना हो तो सल्लेखना संभव नहीं। और सुनो बेटा! मात्र शरीर को ही नष्ट नहीं करना अपितु नष्ट होते शरीर में म्लान मुखी (दुखी) नहीं होना तथा इस भव में मिले वैभव, सुख में अथवा भविष्य में मिलने वाले वैभवादि को याद कर मुदित मुखी, प्रसन्न भी नहीं होना ही सल्लेखना का सही-सही लक्षण है। अन्यथा सल्लेखना बिगड़ जाती है आत्मा का वास्तविक धन, सच्चा सुख नहीं मिल पाता है, बेटा! अतः सुनो "वातानुकूलता हो या न हो बातानुकूलता हो या न हो सुख या दु:ख के लाभ में भी भला छुपा हुआ रहता है, देखने से दिखता है समता की आँखों से, लाभ शब्द ही स्वयं विलोम रूप से कह रहा है ला....भ भ....ला" (पृ. 87) बाहरी वातावरण अपने मन के अनुकूल हो अथवा ना हो, तथा संसार के प्रत्येक व्यक्ति की बातें अपने मन के अनुकूल हो अथवा ना हो, सुख मिले अथवा दुख, दोनों के लाभ में सदा भला छुपा रहता है, किन्तु वह समता की आँखों से ही देखने में आ सकता है। देखो लाभ शब्द स्वयं ही पलटकर कह रहा है ला....भ भ....ला। अत: जो मिले, जैसा मिले, जब मिले उसे समता यानी सम भावों से स्वीकारना, हर्ष-विषाद, प्रतिकार नहीं करना उसी में जीवन का भला है आत्मा का विकास ।
  9. जल में मैंने जन्म लिया किन्तु जल में भी जलन की अनुभूति होती रही मुझे सदा, जल और जलचर जन्तुओं से। जड़ यानी पुद्गल, पर पदार्थों में वह आत्मशान्ति कहाँ है माँ, जो कुछ पलों में मैंने आपके इन चरणों में पाई। मलयाचल का चन्दन, चित्त को हरने वाले चाँद की चमकती चाँदनी की शीतलता भी आज उछल कर कहीं दूर चली गई, मेरी स्पर्शन इन्द्रिय ने जो अनुभव किया था, वह भी आज फीकी लग रही है। तेरी शीतल वाणी ने मेरे भीतर प्रसन्त्रता की वर्षा की है। वास्तव में माँ तुम ही शीत-लता यानी अमृत की बेल की तरह हों साक्षात् कल्याण पथ, सुख के मार्ग को देने वाली हों माँ! तुम्हारी पवित्र गोद में ही इसे और अधिक ज्ञान की प्राप्ति होगी माँ, फिर इसी गोद में खोज होगी निज की, अनन्त गुणों का समूह जो है ऐसे आत्म तत्व की। और सुनो माँ! "व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे जितनी आधि से है और आधि से इतनी भीति नहीं इसे जितनी उपाधि से । इसे उपधि की आवश्यकता है। उपाधि की नहीं, माँ! इसे समधी-समाधि मिले, बस!" (पृ. 86) मुझे शारीरिक वेदना से उतना भय नहीं है, जितना की आधि यानी मानसिक वेदना (अज्ञानता) से, और आधि से भी इतना अधिक भय नहीं है जितना की उपाधि यानी परिग्रह-मूर्छा भाव से। हे माँ! मुझे उपधि यानी मोक्षमार्ग में आवश्यक साधन सामग्री की आवश्यकता है, परिग्रह, मान-सम्मान सूचक शब्दों (उपाधि) की नहीं। अत: साम्य बुद्धि मिले वह भी थोड़ी-सी, प्रमाद युक्त नहीं अपितु पूर्ण समता का विकास हो सके। यहाँ उपधि का अर्थ उपकारक, उपकरण है और उपाधि का अर्थ परिग्रह, अपकारक है ना! और मछली कहती है माँ ! संसार के दुखों से मुक्ति पा सकूं इसलिए मुझे अब सल्लेखना दो, सम्यग्ज्ञान अथवा रत्नत्रय के सूत्ररूप में कुछ उपदेश भी दो। मुझे ऐसी शक्ति दो कि अपनी समाधि को अच्छी तरह देख सकूं अर्थात् जाग्रत दशा में प्राणों का त्याग कर सकूं।
  10. पुन: मछली, माटी से कहती है विषय गंभीर होता जा रहा है, कुछ सरल करो माँ, सो माँ कहती है समझने का प्रयास करो बेटा! सतयुग हो या कलियुग, वह बाहरी परिस्थितियों पर आधारित नहीं है अपितु भीतरी परिणामों पर आधारित है। सत् यानी शाश्वत सत्य की खोज में लगी दृष्टि, विचारधारा ही सतयुग है और नाशवान पञ्चेन्द्रियों के विषय में पूर्णत: डूबी, सच को झूठा मानने वाली विचारधारा ही कलियुग है समझी बात बेटा! और सुनो कलियुग का कलि, काल यानी मृत्यु के समान है, अदया का निवास स्थान बना अतिक्रूर होता है। और सतयुग का सत् कोमल कली, लता के समान, अत्यन्त दयालु, मृदुता से भरा होता है। कलि की आँखों में सदा भ्रमभटकाव ही रहता है जबकि सत् की आँखों में शान्त मानसिकता का दर्शन होता है। एक की दृष्टि सबको तोड़ती है तो एक की दृष्टि सबको जोड़ती है। एक की दुनिया चंचल/शीघ्र नष्ट होने वाली है तो एक की सृष्टि स्थिर, सामर्थवान है। एक का जीवन मृतक–सा, कान्ति–तेज हीन शव–सा लगता है तो एक का जीवन अमृत-सा, तेज युक्त भगवान्-सा होता है। अतः शव यानि कलियुग में आग लगाना होगा उसे नष्ट करना होगा तथा शिव यानी सतयुग में प्रीति जगाना होगा, समझी बात बेटा! माँ की बात सुनकर मछली कहती है - नासमझ थी सो अब समझ आई, उलझी थी सो अब सुलझ गई हूँ माँ। अब पीने के लिए जल की आवश्यकता नहीं है और ना ही जीने के लिए शक्ति की, बस टूटा-फूटा, फटा हुआ यह जीवन किसी तरह शाश्वत सत्य, परमात्मा से जुड़ जाय और निरन्तर बुद्धि परमात्मा में लगी रहे बस! यह जीवन बेजोड़ अर्थात् बिना जोड़ का अखण्ड, अक्षय बन जाए अब इसे सुई धागे अर्थात् बाहरी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है अपने जीवन को सीने यानी जोड़ने के लिए।
  11. लेखनी लिखती है कि- गुरु-कृपा से भोग्य सामग्री मिलना गुरु आशीष से ही धनी मानना परिग्रह बढ़ने पर प्रभुता का वर्धन मानना मान सम्मान होने पर महंतता समझना अज्ञ मानता इसे सौभाग्य है पर यह तो ज्ञान का दुरुपयोग है। पुण्योदय से भोग्य सामग्री मिलने पर स्वयं को सामग्री से भिन्न निरखना पर का स्वामी नहीं बनना परद्रव्यों को भोग के योग्य नहीं स्वीकारना यही तो ज्ञान का सदुपयोग है। सच्चे गुरु कहते हैं मूल में ही भूल है तेरी मेरी कृपा से भोग्य सामग्री मिल कैसे सकती? अरे! भोग्य सामग्री के भोग से संसार ही बढ़ेगा फिर संसार का कारण गुरु कैसे होगा? ऐसे ही गुरुओं को बदनाम करता रहेगा तो भव वन में ही भ्रमता रहेगा। स्व के सिवा भोगने योग्य कुछ है नहीं हड्डी चबाकर गलत सोचता है श्वान ही सोचता बेचारा कि श्वेत अस्थि में लाल रस टपक रहा अरे! यह तो उसी के छिले जबड़ों से रक्त आ रहा। तू जो पाता है अपने भावों से पाता है मेरी कृपा से नहीं,
  12. लेखनी लिखती है कि- जब कीमती वस्तुएँ पाते - पाते अनमोल वस्तु को भूल जाता है, सुख ढूंढ़ते- ढूँढ़ते आत्म हित को भूल जाता है, तब गुरु ही कराते कर्तव्य का स्मरण मंतव्य का मनन गंतव्य की ओर गमन। शिल्पकार पाषाण को फोड़ता है उसे बरबाद करने के लिए नहीं तकदीर बदलने के लिए, स्वर्णकार स्वर्ण को तपाता है उसे जलाने के लिए नहीं शुद्ध बनाने के लिए, गुरु साधना पथ पर चलाते हैं उसे गिराने के लिए नहीं लक्ष्य शिखर तक पहुँचाने के लिए। गुरु की करुणा अकथनीय है गुरु के विचार अकल्पनीय हैं कब धूल को चंदन बना दें कब शूल को सुमन बना दें। जो सागर में रत्न देख लेते हैं पंक में पंकज देख लेते हैं पतझड़ में बसंत देख लेते हैं और शिष्य की आत्मा में अरहंत देख लेते हैं। जैसे देख लिया श्रीज्ञानसिंधु ने विद्याधर को एक ही झलक में अपना लिया उनको जान गये थे उनका भविष्य रोशन करेंगे आचार्य बन समूचे जिनशासन को। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  13. लेखनी लिखती है कि- गुरु और शिक्षक में अंतर है एक धरा तो एक अंबर है शिक्षक कर सकता है मात्र शिक्षित गुरु कर देते हैं विकसित शिक्षक पहले पढ़ाता है परीक्षा लेता है बाद में, गुरु परीक्षा लेता है पहले ज्ञान देता है बाद में। ज्यों विद्याधर से ली थी परीक्षा श्री ज्ञानसागरजी यतिवर ने वाहन को त्याग दिया तत्क्षण विद्याधर ने तभी उनका विद्याध्ययन हुआ था शुरु एक दिन वही परम शिष्य हो गये गुरु। शिक्षक से पाकर शिक्षा वह आजीविका पा लेता है एक भव का जीवन यापन कर लेता है और शिक्षा के बदले शिक्षक को तन के लिए वेतन दे देता है, किंतु गुरु से पाकर शिष्य ज्ञान धन परिणामों की परिणति सुधारता है जिससे भव-भव का भ्रमण ही छूट जाता है। स्पष्ट है शिक्षक की शिक्षा होती है मात्र तन धन के लिए, किंतु गुरु की विद्या होती है चिन्मय आनंद के लिए, गुरु बदले में कुछ लेता नहीं जीवन ही बदल देता है। इसीलिए शिक्षक है टंकी के समान इसमें ऊपर से पानी डाला जाता है जबकि गुरु हैं कूप के समान जिनके भीतर निर्मल जल का झरना बहता है जिनकी दृष्टि चित्त पर ही नहीं चारित्र पर सदा रहती है, ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागरजी का नाम बच्चों की तुतलाती रसना भी सदा रटती है और वृद्धों की अंतिम श्वाँस भी जपती है। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  14. लेखनी लिखती है कि- सिखाने का शौक सभी को है चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो कुछ न कुछ सिखाना चाहता है यह बात अलग है कि सीखना कोई नहीं चाहता है कदाचित् सीखे भी तो भविष्य में औरों को सिखाने को सीखता है। गुरु होने के तरीके क्या हैं? इसके लिए आँखें विस्फारित करता पर शिष्य होने का तरीका क्या है? इसके लिए आँखें मूँदे रखता ठीक से शिष्य बन ही नहीं पाता कि लग जाता है गुरु की परीक्षा लेने प्रथम सीढ़ी तो चढ़ नहीं पाता लग जाता है अंतिम सीढ़ी को देखने। इंसान को छोटा कहलाने में और नीचे रहने से नफरत है अंतिम सीढ़ी पर चढ़कर बड़ा कहलाने का ही एक आकर्षण है। गुरु की शरण में रहना चाहता नहीं पर औरों को शरण देने की ललक है, भक्त बनकर गुरु के निकट रहता नहीं भक्तों का सैलाब अपने निकट रखने की चाहत है, स्वयं को जानता ही नहीं फिर भी औरों को समझाने में लगा रहता, ऐसा करके उसे अपने अच्छे होने का सदा गर्व बना रहता, ऐसे इंसान को शिष्य कैसे कहा जाये? इस प्रसंग में सच्चे शिष्य विद्याधर से कुछ तो सीखा जाये। आर्यिका श्री पूर्णमति माता जी
  15. ।। आज पूज्य आचार्य श्री के केश लौंच।। 7 मार्च, बुधवार ■ परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज जी आज सर्वोदय तीर्थ अमरकंटक में केश लौंच कर रहे है (उत्कृष्ट अवधि) । साथ ही संघस्थ 7 मुनि महाराज जी का भी आज केशलोंच है। नमोस्तु भगवन, नमोस्तु। सूचना साभार: ब्र. श्री सुनील भैया जी, इन्दोर। ■
  16. धर्म संस्कृति 2 - गुरु गरिमा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/dharm-sanskriti-guru-garima/
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