इसलिए प्रकृति यानि स्वभाव (अपनेपन) में लीन होना ही मुक्ति है मोक्ष है और निज स्वभाव (जानने-देखने रूप गुण) को छोड़ अन्य पर पदार्थों में रागद्वेष करना ही मोह है, संसार का कारण। सन्तों ने मात्र बाहरी पुरुषार्थ, उद्यमहीनता को ही कायरता नहीं माना अपितु शरीर के प्रति आसक्ति होना, मन के गुलाम हो, विषयों को भोगने में लिप्त रहना ही सही अर्थ में कायरता है। यदि काय और कायरता दोनों को दूर करना चाहते हों तो सुनो! मन को एकाग्र कर –
"अकाय में रत हो जा!
काय और कायरता
ये दोनों
अन्त-काल की गोद में विलीन हों
आगामी अनन्तकाल के लिए!" (पृ. 94)
सिद्धप्रभु की भक्ति, आत्मस्वरूप में लीनता ही काय और कायरता को अनन्तकाल के लिए नष्ट कर सकती है, अत: देह रहित आत्म तत्व में लीन होकर ही काय का अन्त किया जा सकता है एवं शाश्वत सुख को प्राप्त किया जा सकता है।
1. बाहरी परिग्रह = सोना, चाँदी, मकान, खेत, पशु, धान्य, नौकर, बर्तन, कपड़ा, किराना आदि।