लेखनी लिखती है कि-
जब कीमती वस्तुएँ पाते - पाते
अनमोल वस्तु को भूल जाता है,
सुख ढूंढ़ते- ढूँढ़ते
आत्म हित को भूल जाता है,
तब गुरु ही कराते कर्तव्य का स्मरण
मंतव्य का मनन
गंतव्य की ओर गमन।
शिल्पकार पाषाण को फोड़ता है
उसे बरबाद करने के लिए नहीं
तकदीर बदलने के लिए,
स्वर्णकार स्वर्ण को तपाता है
उसे जलाने के लिए नहीं
शुद्ध बनाने के लिए,
गुरु साधना पथ पर चलाते हैं
उसे गिराने के लिए नहीं
लक्ष्य शिखर तक पहुँचाने के लिए।
गुरु की करुणा अकथनीय है
गुरु के विचार अकल्पनीय हैं
कब धूल को चंदन बना दें
कब शूल को सुमन बना दें।
जो सागर में रत्न देख लेते हैं
पंक में पंकज देख लेते हैं
पतझड़ में बसंत देख लेते हैं
और शिष्य की आत्मा में अरहंत देख लेते हैं।
जैसे देख लिया श्रीज्ञानसिंधु ने विद्याधर को
एक ही झलक में अपना लिया उनको
जान गये थे उनका भविष्य
रोशन करेंगे आचार्य बन समूचे जिनशासन को।