जल में मैंने जन्म लिया किन्तु जल में भी जलन की अनुभूति होती रही मुझे सदा, जल और जलचर जन्तुओं से। जड़ यानी पुद्गल, पर पदार्थों में वह आत्मशान्ति कहाँ है माँ, जो कुछ पलों में मैंने आपके इन चरणों में पाई। मलयाचल का चन्दन, चित्त को हरने वाले चाँद की चमकती चाँदनी की शीतलता भी आज उछल कर कहीं दूर चली गई, मेरी स्पर्शन इन्द्रिय ने जो अनुभव किया था, वह भी आज फीकी लग रही है। तेरी शीतल वाणी ने मेरे भीतर प्रसन्त्रता की वर्षा की है। वास्तव में माँ तुम ही शीत-लता यानी अमृत की बेल की तरह हों साक्षात् कल्याण पथ, सुख के मार्ग को देने वाली हों माँ!
तुम्हारी पवित्र गोद में ही इसे और अधिक ज्ञान की प्राप्ति होगी माँ, फिर इसी गोद में खोज होगी निज की, अनन्त गुणों का समूह जो है ऐसे आत्म तत्व की। और सुनो माँ!
"व्याधि से इतनी भीति नहीं इसे
जितनी आधि से है
और
आधि से इतनी भीति नहीं इसे
जितनी उपाधि से ।
इसे उपधि की आवश्यकता है।
उपाधि की नहीं, माँ!
इसे समधी-समाधि मिले, बस!" (पृ. 86)
मुझे शारीरिक वेदना से उतना भय नहीं है, जितना की आधि यानी मानसिक वेदना (अज्ञानता) से, और आधि से भी इतना अधिक भय नहीं है जितना की उपाधि यानी परिग्रह-मूर्छा भाव से। हे माँ! मुझे उपधि यानी मोक्षमार्ग में आवश्यक साधन सामग्री की आवश्यकता है, परिग्रह, मान-सम्मान सूचक शब्दों (उपाधि) की नहीं। अत: साम्य बुद्धि मिले वह भी थोड़ी-सी, प्रमाद युक्त नहीं अपितु पूर्ण समता का विकास हो सके। यहाँ उपधि का अर्थ उपकारक, उपकरण है और उपाधि का अर्थ परिग्रह, अपकारक है ना!
और मछली कहती है माँ ! संसार के दुखों से मुक्ति पा सकूं इसलिए मुझे अब सल्लेखना दो, सम्यग्ज्ञान अथवा रत्नत्रय के सूत्ररूप में कुछ उपदेश भी दो। मुझे ऐसी शक्ति दो कि अपनी समाधि को अच्छी तरह देख सकूं अर्थात् जाग्रत दशा में प्राणों का त्याग कर सकूं।