पुन: मछली, माटी से कहती है विषय गंभीर होता जा रहा है, कुछ सरल करो माँ, सो माँ कहती है समझने का प्रयास करो बेटा! सतयुग हो या कलियुग, वह बाहरी परिस्थितियों पर आधारित नहीं है अपितु भीतरी परिणामों पर आधारित है। सत् यानी शाश्वत सत्य की खोज में लगी दृष्टि, विचारधारा ही सतयुग है और नाशवान पञ्चेन्द्रियों के विषय में पूर्णत: डूबी, सच को झूठा मानने वाली विचारधारा ही कलियुग है समझी बात बेटा!
और सुनो कलियुग का कलि, काल यानी मृत्यु के समान है, अदया का निवास स्थान बना अतिक्रूर होता है। और सतयुग का सत् कोमल कली, लता के समान, अत्यन्त दयालु, मृदुता से भरा होता है। कलि की आँखों में सदा भ्रमभटकाव ही रहता है जबकि सत् की आँखों में शान्त मानसिकता का दर्शन होता है। एक की दृष्टि सबको तोड़ती है तो एक की दृष्टि सबको जोड़ती है। एक की दुनिया चंचल/शीघ्र नष्ट होने वाली है तो एक की सृष्टि स्थिर, सामर्थवान है। एक का जीवन मृतक–सा, कान्ति–तेज हीन शव–सा लगता है तो एक का जीवन अमृत-सा, तेज युक्त भगवान्-सा होता है। अतः शव यानि कलियुग में आग लगाना होगा उसे नष्ट करना होगा तथा शिव यानी सतयुग में प्रीति जगाना होगा, समझी बात बेटा!
माँ की बात सुनकर मछली कहती है - नासमझ थी सो अब समझ आई, उलझी थी सो अब सुलझ गई हूँ माँ। अब पीने के लिए जल की आवश्यकता नहीं है और ना ही जीने के लिए शक्ति की, बस टूटा-फूटा, फटा हुआ यह जीवन किसी तरह शाश्वत सत्य, परमात्मा से जुड़ जाय और निरन्तर बुद्धि परमात्मा में लगी रहे बस! यह जीवन बेजोड़ अर्थात् बिना जोड़ का अखण्ड, अक्षय बन जाए अब इसे सुई धागे अर्थात् बाहरी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है अपने जीवन को सीने यानी जोड़ने के लिए।