ठंड की ऋतु (मौसम) है वह भी अपने प्राकृतिक (स्वभाविक) रूप में नहीं है। पेड़-पौधों की प्रत्येक डाल पर, पत्तों पर बर्फ गिर रही है और गिरते बर्फ के साथ-साथ जोरदार हवा भी चल रही है। ऐसी परिस्थिति में सुन्दर कोमल-कोमल काया वाली लता-लतिकाएँ शीत लहर के स्पर्श से पीली-पीली पड़ने लगी हैं एवं जल-सी गई हैं।
ऐसे मौसम में सबके शरीर प्राय: कपकपी का अनुभव कर रहे हैं किन्तु ऐसा कौन पुरुष है वह? जिसका हृदय अनुकम्पा, प्राणि मात्र के प्रति दया का भाव ले कांप रहा हो, कहाँ रह रहा है वह? उस परम दयालु परम पुरुष की कृपा, श्रेष्ठ दया की वर्षा इस धरा पर कब होती है कहा नहीं जा सकता।
इधर ठंड के कारण सभी के दाँत किट-किटा रहे हैं, मानो नाच रहे हैं, अभ्यासी नर्तक के समान। पता नहीं किसने, कब इनको नृत्य-कला की दीक्षाशिक्षा और प्रशिक्षण दिया था। दिन भी छोटे हो गये हैं सूर्य की तेजस्विता भी डरती-सी यहाँ-वहाँ बिखर-सी गई है। उसका ताप शरीर को महसूस नहीं हो रहा है, लगता है मानो सूर्य ऊपर गगन में रहकर भी ठंड के सामने नतमस्तक हो चुका है अर्थात् हार मान चुका है।
पृथ्वी में सब ओर जहाँ कहीं भी देखो, ठंड का ही प्रभाव दिख रहा है। भौंरे के घने नीले रंग को भी पराजित करने वाली, शनि (काले रंग का प्रतीक) को पैदा करने वाली, भय, घमंड और पापों को जन्म देने वाली रात्रि दुगुणी लंबी हो गई है। यह शिशिर का मौसम सभी को कष्टदायी प्रतीत हो रहा है। पर इस समय भी एक विशेष बात यह है कि-मात्र एक सूती चादर ओढ़े शिल्पी की रात सहज रूप से व्यतीत हो रही है, किसी प्रकार की आकुलता मन में नहीं है और ना ही ठंड को कोई विकल्प।
बाहर पड़ी हुई माटी लेटे हुए शिल्पी को देख रही है और व्यवहारिकता के वशीभूत हो शिल्पी से कुछ कहती है, वहीं से पड़े-पड़े। शरीर तो शरीर है पुद्गल से उत्पन्न पुद्गल की पर्याय, धर्म का साधन, उपकरण भी है, इसलिए कम से कम तन पर एक गरम कम्बल तो ले ही लो ना ! ताकि..... इतना कहकर माटी चुप हो जाती है। माटी की बात सुनकर शिल्पी तुरन्त कुछ कहता है जिसे सुनती है माटी –
"कम बलवाले ही
कम्बल वाले होते हैं
और
काम के दास होते हैं।
हम बलवाले हैं
राम के दास होते हैं
और
राम के पास सोते हैं। "(पृ. 92)