समाधि और सल्लेखना की बात सुनकर मुस्कुराती हुई माटी कहती है - सल्लेखना का अर्थ शरीर और क्रोधादि कषायों को कृश, कम करना होता है बेटा! शरीर को सुखाने से कषायें भी कम होने लगती हैं, कम होना ही चाहिए। शरीर सूख जाए, किन्तु कषाय कम ना हो तो सल्लेखना संभव नहीं। और सुनो बेटा! मात्र शरीर को ही नष्ट नहीं करना अपितु नष्ट होते शरीर में म्लान मुखी (दुखी) नहीं होना तथा इस भव में मिले वैभव, सुख में अथवा भविष्य में मिलने वाले वैभवादि को याद कर मुदित मुखी, प्रसन्न भी नहीं होना ही सल्लेखना का सही-सही लक्षण है। अन्यथा सल्लेखना बिगड़ जाती है आत्मा का वास्तविक धन, सच्चा सुख नहीं मिल पाता है, बेटा! अतः सुनो
"वातानुकूलता हो या न हो
बातानुकूलता हो या न हो
सुख या दु:ख के लाभ में भी
भला छुपा हुआ रहता है,
देखने से दिखता है समता की आँखों से,
लाभ शब्द ही स्वयं
विलोम रूप से कह रहा है
ला....भ भ....ला" (पृ. 87)
बाहरी वातावरण अपने मन के अनुकूल हो अथवा ना हो, तथा संसार के प्रत्येक व्यक्ति की बातें अपने मन के अनुकूल हो अथवा ना हो, सुख मिले अथवा दुख, दोनों के लाभ में सदा भला छुपा रहता है, किन्तु वह समता की आँखों से ही देखने में आ सकता है। देखो लाभ शब्द स्वयं ही पलटकर कह रहा है ला....भ भ....ला। अत: जो मिले, जैसा मिले, जब मिले उसे समता यानी सम भावों से स्वीकारना, हर्ष-विषाद, प्रतिकार नहीं करना उसी में जीवन का भला है आत्मा का विकास ।