लेखनी लिखती है कि-
गुरु-कृपा से भोग्य सामग्री मिलना
गुरु आशीष से ही धनी मानना
परिग्रह बढ़ने पर प्रभुता का वर्धन मानना
मान सम्मान होने पर
महंतता समझना
अज्ञ मानता इसे सौभाग्य है
पर यह तो ज्ञान का दुरुपयोग है।
पुण्योदय से भोग्य सामग्री मिलने पर
स्वयं को सामग्री से भिन्न निरखना
पर का स्वामी नहीं बनना
परद्रव्यों को भोग के योग्य नहीं स्वीकारना
यही तो ज्ञान का सदुपयोग है।
सच्चे गुरु कहते हैं मूल में ही भूल है तेरी
मेरी कृपा से भोग्य सामग्री मिल कैसे सकती?
अरे! भोग्य सामग्री के भोग से संसार ही बढ़ेगा
फिर संसार का कारण गुरु कैसे होगा?
ऐसे ही गुरुओं को बदनाम करता रहेगा
तो भव वन में ही भ्रमता रहेगा।
स्व के सिवा भोगने योग्य कुछ है नहीं
हड्डी चबाकर गलत सोचता है श्वान ही
सोचता बेचारा कि श्वेत अस्थि में लाल रस टपक रहा
अरे! यह तो उसी के छिले जबड़ों से रक्त आ रहा।
तू जो पाता है अपने भावों से पाता है
मेरी कृपा से नहीं,