लेखनी लिखती है कि-
सिखाने का शौक सभी को है
चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो
कुछ न कुछ सिखाना चाहता है
यह बात अलग है कि
सीखना कोई नहीं चाहता है
कदाचित् सीखे भी तो
भविष्य में औरों को सिखाने को सीखता है।
गुरु होने के तरीके क्या हैं?
इसके लिए आँखें विस्फारित करता
पर शिष्य होने का तरीका क्या है?
इसके लिए आँखें मूँदे रखता
ठीक से शिष्य बन ही नहीं पाता कि
लग जाता है गुरु की परीक्षा लेने
प्रथम सीढ़ी तो चढ़ नहीं पाता
लग जाता है अंतिम सीढ़ी को देखने।
इंसान को छोटा कहलाने में
और नीचे रहने से नफरत है
अंतिम सीढ़ी पर चढ़कर
बड़ा कहलाने का ही एक आकर्षण है।
गुरु की शरण में रहना चाहता नहीं
पर औरों को शरण देने की ललक है,
भक्त बनकर गुरु के निकट रहता नहीं
भक्तों का सैलाब अपने निकट रखने की चाहत है,
स्वयं को जानता ही नहीं
फिर भी औरों को समझाने में लगा रहता,
ऐसा करके उसे अपने अच्छे होने का
सदा गर्व बना रहता,
ऐसे इंसान को शिष्य कैसे कहा जाये?
इस प्रसंग में
सच्चे शिष्य विद्याधर से
कुछ तो सीखा जाये।