लेखनी लिखती है कि-
गुरु और शिक्षक में अंतर है
एक धरा तो एक अंबर है
शिक्षक कर सकता है मात्र शिक्षित
गुरु कर देते हैं विकसित
शिक्षक पहले पढ़ाता है
परीक्षा लेता है बाद में,
गुरु परीक्षा लेता है पहले
ज्ञान देता है बाद में।
ज्यों विद्याधर से ली थी परीक्षा
श्री ज्ञानसागरजी यतिवर ने
वाहन को त्याग दिया तत्क्षण विद्याधर ने
तभी उनका विद्याध्ययन हुआ था शुरु
एक दिन वही परम शिष्य हो गये गुरु।
शिक्षक से पाकर शिक्षा
वह आजीविका पा लेता है
एक भव का जीवन यापन कर लेता है
और शिक्षा के बदले शिक्षक को
तन के लिए वेतन दे देता है,
किंतु गुरु से पाकर शिष्य ज्ञान धन
परिणामों की परिणति सुधारता है
जिससे भव-भव का भ्रमण ही छूट जाता है।
स्पष्ट है शिक्षक की शिक्षा
होती है मात्र तन धन के लिए,
किंतु गुरु की विद्या
होती है चिन्मय आनंद के लिए,
गुरु बदले में कुछ लेता नहीं
जीवन ही बदल देता है।
इसीलिए शिक्षक है टंकी के समान
इसमें ऊपर से पानी डाला जाता है
जबकि गुरु हैं कूप के समान
जिनके भीतर निर्मल जल का झरना बहता है
जिनकी दृष्टि चित्त पर ही नहीं
चारित्र पर सदा रहती है,
ऐसे गुरुवर श्रीविद्यासागरजी का नाम
बच्चों की तुतलाती रसना भी सदा रटती है
और वृद्धों की अंतिम श्वाँस भी जपती है।