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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • सोपान 8. काँटों की परिणति में बदलाहट

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    माटी को चिकनाहट की चरम सीमा पर पहुँचाने शिल्पी माटी के पास आ रहा है। इधर माटी में पड़ा एक काँटा बदले का भाव ले शिल्पी को देख रहा है, चकित चोर-सा। माटी खोदते समय इस पर कुदाली की मार पड़ी थी, सो कटा-टूटा हुआ भी बलवान बना काँटा। काँटे के बदले का भाव बदल जाय, इसी उद्देश्य से माटी काँटे के मन में पैदा हुआ बदले का भाव दल-दल, अनल, राहु के समान कष्टदायी है, दशानन का नाम ‘रावण' भी इसी कारण पड़ा। माटी की बात सुन काँटे माटी से कहते हैं कि हमें सदा बुराई की दृष्टि से ना देखो, हमारे गुणों की ओर भी ध्यान हो। हमारी कठिन चुभन से कली खिलती, वीतरागता की सीख मिलती, महादेव(अरिहंत)ने हमें स्वीकारा है और काम को जलाया है। स्थान एवं समय सूचक यन्त्रों में भी हमारी उपयोगिता सिद्ध है, अत: शिल्पी की मति में परिवर्तन हो, कम से कम क्षमा याचना तो हो। माटी काँटों को शिल्पी के स्वभाव से परिचित कराती है, शिल्पी स्वयं ही काँटों से क्षमायाचना करता है जिसके फलस्वरूप काँटे के मन में भरा बदले का भाव शान्त हो, नष्ट हो जाता है। क्रोध का शमन, बोध का आगमन और शोध भाव की जागृति हुई, प्राकृत विषय को और स्पष्ट करती है लेखनी शब्द का बोध हो और बोध से शोध हो तब निराकुलता फलती है। सो पश्चाताप के साथ कंटक अपनी भूल स्वीकारता हुआ एक अच्छे मन्त्र की माँग करता है शिल्पी से। शिल्पी मन्त्र की समीचीन विधा कहता है। पुन: मोह, मोक्ष की लक्षणा, साहित्य की व्याख्या पूछता है काँटा, शिल्पी द्वारा समाधान पा आनन्द में डूबा नृत्य करता है टूटा-फूटा काँटा और अन्त में देह संस्कार का कारण।

     

    पानी को पीते ही माटी फूल की पांखुड़ियों की तरह पूरी फूल चुकी है, माटी का यह फूलन ही चिकनाहट, प्रेम भाव प्राप्ति का प्रथम चरण, जड़ के समान है। माटी में रूखेपन, द्वेषमय भावों का अभाव जड़ उखाड़ने के समान है। शिल्पी विचारता है माटी ने जल-पान तो किया, किन्तु जल धारण करने, जल को आधार देने की क्षमता इसमें कब उभरेगी? स्वयं ही समाधान करता है जब इसकी चिकनाई चरमता को प्राप्त होगी एवं आग को पिएगी। यह तभी सम्भव है।



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