कुंकुम के समान मुलायम माटी में शिल्पी ने छना हुआ स्वच्छ जल मिलाया। जल मिलाते ही माटी के कण-कण में नई चेतना, नया परिवर्तन हुआ। कण-कण में बिखरी माटी एक रूप हो गई, प्रसन्नता से फूलने लगी, इधर जल के जीवन में भी नया अनुभव हुआ। बहाव रूप जल का स्वभाव था, सो इस समय ठहराव का अनुभव हो रहा है।
"माटी के प्राणों में जा,
पानी ने वहाँ
नव-प्राण पाये हैं,
ज्ञानी के पदों में जा
अज्ञानी ने जहाँ
नव-ज्ञान पाया है।
अस्थिर को स्थिरता मिलनी
अचिर को चिरता मिली
नव-नूतन परिवर्तन." (प्र. 89)
यथा अज्ञानी भी ज्ञानी के चरणों की शरण में जा नया ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तथा यानी उसी प्रकार स्थिर स्वभाव वाली माटी की संगति प्राप्त कर बहाव स्वभाव वाला जल भी स्थिर स्वभाव वाला बना, क्षण भंगुर जीवन शाश्वतता से जुड़ा, जल ने नए प्राण पाए। ज्ञानी वह नहीं जो बहुत शास्त्रों का ज्ञाता हो, ज्ञानी वह है जो आत्मस्थ हो, विषयों के बहाव में न बहता हो, इन्द्रियविजयी, शान्त परिणामी हो। सम्यग्ज्ञानी योगियों की शरण को प्राप्त कर अंजनचोर भी निरंजन (सिद्ध) बना, अपढ़ शिवभूति मुनि महाराज अनन्तज्ञानी बने।
शरीर के भीतर विराजित चेतन की इस क्रियाशीलता का, अनन्त कालीन नर्तन का दर्शन कौन-सी आँखों को संभव है, किसकी और कहाँ है वे आँखें? यह सब रहस्य जानना है।