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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. कुम्भकार को प्रसन्नता से भरा हुआ देख कुम्भ ने कहा कि - "परीषह - उपसर्ग के बिना कभी स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी त्रैकालिक सत्य है यह!" (पृ. २६६) आज तक जिन्होंने ने भी स्वर्गीय सुख व मोक्ष सुख प्राप्त किया अथवा आगे करेंगे उन्होंने समता पूर्वक आगत' बाधाओं, संकटों को सहर्ष स्वीकार किया है। क्योंकि यह त्रैकालिक सत्य है कि परीषह-उपसर्गों को सहन किए बिना किसी को भी सच्चे सुख की प्राप्ति न हुई और न होगी। कुम्भ की बात सुन कच्चे कुम्भ की परिपक्व दृढ़ आस्था पर कुम्भकार को आश्चर्य हुआ और वह कहता है - मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतने थोड़े समय में तुम्हारी आस्था इतनी दृढ़ बनेगी, समता-सहनशीलता का विकास हो पायेगा, क्योंकि कठिन साधना-पथ पर बड़े-बड़े साधक भी हार मान जाते हैं, किन्तु अब मुझे पूरा विश्वास हो चुका है कि आगे भी तुम्हें पूर्ण सफलता मिलेगी। फिर भी तुम्हारी यात्रा अभी प्रारम्भिक घाटियों से गुजर रही है आगे घाटियाँ ही घाटियाँ आने वाली हैं और सुनो आग की नदी भी पार करनी है तुम्हें, वह भी बिना किसी नौका अर्थात् सहारे के, स्वयं अपने बाहुबलों से तैरकर इसके बिना किनारे का मिलना संभव नहीं। "इस पर कुम्भ कहता है कि- जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं साधक की अन्तर-दृष्टि में।" (पृ. २६७) आत्म तत्त्व/निर्वाण' की उपलब्धि हेतु निरन्तर साधना करने वाले साधक की अन्तर दृष्टि में पानी और आग में अन्तर दिखता ही नहीं, उसके लिए सब समान हैं, जो मिले उसे स्वीकार । साधक की यात्रा निरन्तर एकत्व की ओर, परमात्मपने की ओर बढ़ती है बढ़नी ही चाहिए अन्यथा यात्रा नाम मात्र की मानी जावेगी। सही यात्रा की शुरुआत तो अभी हुई ही नहीं साधना की, ऐसा समझना चाहिए। कुम्भ की ये पक्तियाँ जोश भरी, प्रभावशाली साबित हुई हैं।
  2. इधर कई दिनों बाद स्वच्छ नीले आकाश का दर्शन हुआ। पवन भी कर्तव्य कर आनन्दित हो उठा तथा उत्साह-उल्लास से भरा सौरमण्डल कहता है- धरती की कीर्ति बनी रही और हम सबकी माँ धरती के प्रति अटूट आस्था बनी रहे बस यही भावना है। धरती के कण-कण वन उपवन, पवन सभी सूर्य की आभा से नहा गये हैं, कलियाँ खुल खिल गई हैं। नयी उमंग, नये रंग, नया उत्साह सब कुछ नया-नया-सा प्रतीत होने लगा है। वातावरण में नव-नूतन परिवर्तन दिखा किन्तु मौन बैठे हुए शिल्पी पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। मन्द-मन्द सुगन्धित बहती हुई हवा भी उसे प्रभावित ना कर सकी, उसके रोम-रोम रोमांचित गद्गद् भी कहाँ हुए? सो ठीक ही है जो अस्पर्श' को छूना चाहता है उसे पुद्गल का स्पर्श क्या प्रभावित करेगा? गुलाब की महक शिल्पी की नासा तक पहुँच कर भी उसकी नासा को जगा न सकी, सच है भोगों में लीन भोक्ता को भी जब वह तृप्त न कर सकी तो फिर योगी को बुलाना, बाहर लाने का प्रयास करना, कठिन तो होगा ही। घोंसलों को छोड़ आकाश में उड़ते पक्षियों की चहचहाहट भी चाह रहित शिल्पी के कानों को लुभा न सकी। ऐसी स्थिति में स्वयं दूर जन्म लेने वाले सूरज ने अपनी किरणों के माध्यम से कमलों की पांखुड़ियों की भाँति शिल्पी की आँखों को सहलाना शुरु किया। इस सहलाव से शिल्पी को अनुभूत हुआ माँ की ममता का स्नेह भरा स्पर्श, आँखें पूरी खुलीं उसकी और उसने किया दिनकर का दर्शन । दूर से दर्शन पाकर भी नेत्रों से खुशियों के आँसू टपकने लगे धरती के कण-कण प्रभु-भक्ति में डूबने की इच्छा करने लगे। इसी तरह पूरा का पूरा वातावरण छूना, देखना, प्रसन्न होना और कुछ पाने की चाह में डूबने लगा, लीन हो गया।
  3. पवन की बात सुन फूल कुछ न बोला, केवल उसने अपनी दृष्टि सुदूर बैठे शिल्पी की ओर कर दी, जो उदास बैठा हुआ, औरों को क्या अपने तन को भी नहीं देख पा रहा है प्रभु भक्ति में डूबा हुआ है। कुछ पल बाद ही क्रोधित हो ऊपर बादलों की ओर नजर की फूल ने, जो बादल कलह करने में लीन हैं, विघ्न की मूर्ति बने हैं। भिन्न-भिन्न पात्रों को देखकर भिन्न मुखाकृति, परिणामों की बदलाहट पर्याप्त थी पवन के लिए क्योंकि - "अनुक्त भी ज्ञात होता है अवश्य उद्यमशील व्यक्ति के लिए फिर ...... तो संयमशील भक्ति के लिए किसी भी बात की अव्यक्तता आकुलित करेगी क्या? सब कुछ खुलेगी-खिलेगी उसके सम्मुख....अविलम्ब !" (पृ. 260) जो पुरुषार्थशील होता है वह बिना कहे ही इशारे से सब कुछ समझ जाता है फिर जो संयमित हो, भक्ति-भाव से भरा हो, वह कैसे न समझ पाएगा। सहज ही सारा का सारा विषय, अपना कर्त्तव्य उसे समझ में आ गया। प्रासंगिक कार्य पता चलते ही उसे पूर्ण करने के लिए सानन्द तैयार होता है पवन । धरती द्वारा किए उपकार को चुकाने हेतु भयंकर रूप धारण करता हुआ पवन बादलों से कहता है-सन्मार्ग से च्युत हुए हे बादलों! अपनी शक्ति का सदुपयोग करो, छल-कपट छोड़ो क्योंकि इससे जीवन में कभी भी तुम्हें सुख- शान्ति नहीं मिल सकती। अब कुछ करो अथवा न करो, तुम्हारा अन्तिम समय निकट आ ही गया है। मति की गति से भी तीव्र गति वाला होता हुआ पवन आकाश में पहुँचता है, बादलों को अपनी चपेट में ले उनका मुख समुद्र की ओर मोड़ देता है। फिर पूरी ताकत लगाकर एक ठोकर लगा देता है, जैसे बालक गेंद को पैर से ठोकर लगा दूर फेंक देता है। फिर क्या कहना? बादलों सहित अनगिनत ओले एक साथ सागर में जा गिरते हैं। जैसे पापकर्म के वशीभूत हो पापी जीव नरकों में जा पड़ते हैं।
  4. पवन की बात सुन फूल कुछ न बोला, केवल उसने अपनी दृष्टि सुदूर बैठे शिल्पी की ओर कर दी, जो उदास बैठा हुआ, औरों को क्या अपने तन को भी नहीं देख पा रहा है प्रभु भक्ति में डूबा हुआ है। कुछ पल बाद ही क्रोधित हो ऊपर बादलों की ओर नजर की फूल ने, जो बादल कलह करने में लीन हैं, विघ्न की मूर्ति बने हैं। भिन्न-भिन्न पात्रों को देखकर भिन्न मुखाकृति, परिणामों की बदलाहट पर्याप्त थी पवन के लिए क्योंकि - "अनुक्त भी ज्ञात होता है अवश्य उद्यमशील व्यक्ति के लिए फिर ...... तो संयमशील भक्ति के लिए किसी भी बात की अव्यक्तता आकुलित करेगी क्या? सब कुछ खुलेगी-खिलेगी उसके सम्मुख....अविलम्ब !" (पृ. 260) जो पुरुषार्थशील होता है वह बिना कहे ही इशारे से सब कुछ समझ जाता है फिर जो संयमित हो, भक्ति-भाव से भरा हो, वह कैसे न समझ पाएगा। सहज ही सारा का सारा विषय, अपना कर्त्तव्य उसे समझ में आ गया। प्रासंगिक कार्य पता चलते ही उसे पूर्ण करने के लिए सानन्द तैयार होता है पवन । धरती द्वारा किए उपकार को चुकाने हेतु भयंकर रूप धारण करता हुआ पवन बादलों से कहता है-सन्मार्ग से च्युत हुए हे बादलों! अपनी शक्ति का सदुपयोग करो, छल-कपट छोड़ो क्योंकि इससे जीवन में कभी भी तुम्हें सुख- शान्ति नहीं मिल सकती। अब कुछ करो अथवा न करो, तुम्हारा अन्तिम समय निकट आ ही गया है। मति की गति से भी तीव्र गति वाला होता हुआ पवन आकाश में पहुँचता है, बादलों को अपनी चपेट में ले उनका मुख समुद्र की ओर मोड़ देता है। फिर पूरी ताकत लगाकर एक ठोकर लगा देता है, जैसे बालक गेंद को पैर से ठोकर लगा दूर फेंक देता है। फिर क्या कहना? बादलों सहित अनगिनत ओले एक साथ सागर में जा गिरते हैं। जैसे पापकर्म के वशीभूत हो पापी जीव नरकों में जा पड़ते हैं।
  5. कुछ समय व्यतीत हुआ कि विनयशील, प्रकृति के अनुसार स्वभाव से वन-उपवन विचरने वाला, मौसम के अनुकूल रहने वाला, जीवन के प्रत्येक पल में मित्रता निभाने वाला, अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करने वाला पवन आता है। सो ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में सन्तों का कहना है कि - "जिसकी कर्तव्य-निष्ठा वह काष्ठा को छूती मिलती है उसकी सर्वमान्य प्रतिष्ठा तो...... काष्ठा को भी पार कर जाती है।" ( पृ. 258) जो कर्ता-बुद्धि से रहित सदा अपने कर्तव्य निर्वाह में, चरम सीमा तक लगा रहता है, उसका सभी सम्मान करते हैं और उसकी लौकिक प्रतिष्ठा भी सीमा को लांघ अनन्त आकाश को छू जाती है। फूल के स्मरण मात्र से पवन का आना हुआ, गुलाब का फूल अत्यधिक प्रसन्नता से भर गया, नाचने लगा, परिणाम स्वरूप स्वयमेव मित्र का स्वागत हुआ। (चेहरे की मुस्कान, प्रसन्नता ही सबसे बढ़िया स्वागत का साधन है) फूल ने आत्मीयता से भरे भावों से पवन को नहला दिया तो बदले में पवन ने भी फूल को प्रेम से हिला दिया। फिर पवन ने विनयपूर्वक पूछा-मुझे याद किया सो कारण जानना चाहता हूँ। जिससे की प्रासंगिक कर्तव्य पूर्ण कर पुण्य से अपने को पवित्र कर सकें। पर के लिए सहयोगी, उपयोगी बन सकें यही एक भावना है या कहूँ तो एक बहाना है क्योंकि समता की ओर बढ़ने का सबसे सरल उपाय यही है और दूसरों को माध्यम बना, अपने भीतर भरी गंदगी को दूर करना है।
  6. इस संकट की परिस्थिति को देख दाँत कटकटाते हुए गुलाब के काँटे भी कुछ कहते हैं कि अरे संकट! समस्त इच्छाओं से परे रहने वाले निर्दोष, निश्छल पथिकों के पथ में काँटा बनकर फैल नहीं, अपना हठ छोड़ और कहीं दूर चला जा । अन्यथा तुझे पता नहीं काँटे से ही काँटा निकलता है, फिर कुछ ही पलों में पता न चलेगा तेरा। इसी बीच डाल पर लटकता फूल काँटे की बात काटे बिना, डाँटे बिना ही विशेष सक्रिय हो काँटे की उत्तेजना को शान्त करने हेतु समयानुकूल बात कहता है - "जब सुई से काम चल सकता है तब तलवार का प्रहार क्यों करें ? जब फूल से काम चल सकता है तब शूल का व्यवहार क्यों करें? जब मूल में भूतल पर रह कर ही फल हाथ लग रहा है तब चूल पर चढ़ना वह मात्र शक्ति-समय का अपव्यय ही नहीं, सही मूल्यांकन का अभाव भी सिद्ध करता है।" (पृ. 257) हे काँटे भाई ! चिन्ता न करो संकट शीघ्र ही नष्ट होने वाला है और जब सुई से ही काम निकल जावे तो तलवार की क्या आवश्यकता? और जब फूल यानी प्रेम-व्यवहार से ही सफलता मिलने लगे तो शूल यानी कठोरता का व्यवहार क्यों किया जावे? जब नीचे जड़ के पास ही रहकर फल प्राप्त हो रहा हो तो पेड़ के ऊपर चढ़ना, शक्ति और समय को व्यर्थ ही नष्ट करना है साथ ही साथ परिस्थिति को सही-सही नहीं समझ पाना ही माना जायेगा। यूँ सुगन्ध के कोष फूल ने नीति- न्याय का तरीका बतलाते हुए, प्रेम-वात्सल्य का खजाना दिखाते हुए अपने अनन्य मित्र पवन (हवा) को याद किया।
  7. दिन पर दिन कई दिन व्यतीत हुए शिल्पी दिखा नहीं सो गुलाब के पौध के समक्षा पुरानी यादें झलक आने लगी-प्रेम भरी मुस्कान,लाड़-प्यार की बात, कोमल हाथों से पौधों के तन को सहलाना, मधुर संगीत सुनाते हुए शीतल जल का सिंचन करना, यह सब अतीत की बातें हो गईं। पौधे ने देखा-विषयभोगों के सेवन से उदासीन भक्ति-योग में लीन सुदूर प्रांगण में बैठा हुआ है शिल्पी वह। उसकी मति प्रभु भक्ति में लीन है किन्तु मुख पर हल्की-सी उदासी छाई है। अपने स्वामी को धर्मसंकट में पड़ा देख गुलाब का पौधा बोल पड़ा हे भगवन् - "इस संकट का अन्त निकट हो, विकट से विकटतम संकट भी कट जाते हैं पल भर में; आपको स्मरण में लाते ही फिर.........तो.........प्रभो! निकट-निकटतम निरखता आपको हृदय में पाते भी विलम्ब क्यों हो रहा है, आर्य के इस कार्य में ......?" (पृ. 255) आपको स्मरण में लाते ही संसार के सारे संकट क्षण भर में दूर हो जाते हैं, जैसे सूर्य की किरणों द्वारा अंधकार समूह पल में भाग जाता है। फिर जिसने आपको सदा अपने हृदय में ही बैठा रखा है, ऐसे मेरे स्वामी, सज्जन पुरुष-आर्य के कार्य में देरी क्यों हो रही है यह संकट शीघ्र ही दूर हो प्रभो!
  8. जन्म भूमि की लाज, माँ पृथ्वी की प्रतिष्ठा दृढ़ श्रद्धान के बिना स्थिर रह नहीं सकती और इस प्रतिकूलता में भी भूकणों का अद्भुत साहस, त्याग देख शिल्पी प्रभु की आराधना में लीन हो जाता है। शिल्पी ने आज तक प्रभु से कुछ माँगा नहीं, इसका यह अर्थ नहीं कि उसे किसी प्रकार की पीड़ा अथवा अभाव की अनुभूति नहीं। हाँ धन की कमी, कोई कमी नहीं और प्रभु से इसकी माँग भी व्यर्थ है क्योंकि जो प्रभु के पास ही नहीं उसकी क्या माँग करना, किन्तु परमार्थ का अभाव शिल्पी को असहनीय हो रहा है। शीघ्र ही परमार्थ (मोक्ष, सत्य, ईश्वर) का सद्भाव हो इसमें प्रभो ! भले ही बालक हाथ-पैर न पटक रहा हो, कपड़े नहीं फाड़ रहा हो, न ही क्रोध करता हुआ रो रहा हो, इसका यह अर्थ नहीं की वह दुखी नहीं है, ऐसा निर्णय लेना भी ठीक नहीं है। किसी कारण वश सिसकते हुए बालक के दुख, पीड़ा को माँ ही जान सकती है। शिल्पी की अन्तर्वेदना का दर्शन यदि अन्तर्यामी ( मन की बात जानने वाला ) प्रभु को भी नहीं होगा तो किसे होगा? किसकी आँखें सजल हो सांत्वना दे सकेंगी? हे भगवन् । किसी भी तरह धरती की गरिमा बने रहे, जल का (बादलों का) अहंकार समाप्त हो जाए बस | परीक्षा की भी सीमा होती है, अति परीक्षा भी प्रायः पात्र को मार्ग से च्युत कर देती है, पाथेय यानी सहयोगी के प्रति भी आस्था कमजोर पड़ती जाती है। बार-बार विघ्न आने से धीरज दृढ़ता भी हिलती है मन भयभीत होने लगता है। क्या अकाल में ही कुम्भ को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा अर्थात् नष्ट हो जाएगा?
  9. माँ पृथ्वी की प्रतिष्ठा के विषय में सोचता हुआ शिल्पी डूबता है प्रभु की उपासना में, अर्थ नहीं परमार्थ की चाह । गुलाब पौध की स्मृति प्रभु से प्रार्थना, संकट का अन्त हो । काँटे का रोष-संकट पर, फूल द्वारा मित्र पवन को याद करना। पवन का आना, गुलाब द्वारा मित्र का सम्मान। पवन ने पूछा याद करने का कारण, सहयोग की भावना। फूल की भिन्न-भिन्न भाव भंगिमा देख प्रासंगिक कार्य करने हेतु पवन की कटिबद्धता, नभमण्डल में पहुँच बादलों के प्रति सरोष कथन, साथ ही जोरदार ठोकर लगाना, बादलों-ओलों का सागर में जा गिरना। निरभ्र नील आकाश का दर्शन। शिल्पी की उदासीनता दूर कर उसे बाहर लाने का प्रयास, स्वस्थ्य दशा की ओर लौटता कुम्भकार। अपक्व कुम्भ की परिपक्व आस्था की बात, शिल्पी ने कहा-आग की नदी को भी पार करना है अभी, तो कुम्भ जवाब देता है-आग-अनल में अन्तर नहीं साधक की दृष्टि में।
  10. इस तरह लेखनी के मुख से भू-कणों की प्रशंसा और अपनी मूल्यहीनता सुन ओले निर्दयी बन भू-कणों पर टूट पड़े। फिर भू-कणों ने भी, ओलों को टक्कर दे आकाश में बहुत दूर फेंक दिया। जिस प्रकार प्रक्षेपास्त्र द्वारा आर्यभट्ट, रोहिणी आदि उपग्रहों को धरती-कक्ष के बाहर उछाल दिया जाता है। इस टकराव से कुछ ओले तो पल भर में टूट-फूट कर छिन्न-भिन्न हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों देवों द्वारा परिमल पारिजात पुष्प की पांखुरियाँ ही बिखेरी गई हों, जो मन्द मुस्कान के साथ नीचे उतर रही हों। नीचे उतरते ओलों के टुकड़ों को अपने मस्तक पर लिए उड़ते हुए भू-कण ऐसे लग रहे हैं जैसे हनुमानजी अपने माथे पर हिमालय पर्वत ले उड़ रहे हैं। घण्टों तक चल रहे इस घटनाक्रम को देख इन दिनों (1984 में) चर्चा का विषय बनी ‘‘स्टार वार' की बात भी महत्त्वहीन फीकी लग रही है। ऊपर घटती इस घटना को कुम्भ भी खुली आँखों से देख रहा था, किन्तु उसके मुख पर जरा-सा भी भय नहीं झलक रहा है, वह साक्षीभाव' से सब देख और जान रहा है। इस पर भी आश्चर्य की बात तो यह है कि एक भी ओला गिरकर कुम्भ को फोड़ ना सका। भूकणों की जीत हो चुकी है और ओलों की हार हो चुकी है फिर भी क्रोध की हार होना सहज नहीं।
  11. सो यह लेखनी तुलना करने लगी सौरमण्डल और भूमण्डल की। ऊपर सौरमण्डल में अणु की शक्ति काम कर रही है, पौगलिक यन्त्र आवाज कर रहा है। जो मारक है विज्ञान का उत्पादक, जिसका जीवन ही तर्क-वितर्क से चलता है, अधर में लटका है। यही कारण है कि ऊपर वाले (देव, धरवान, ओले आदि) के पास दिमाग तो है किन्तु चरण-आचरण नहीं, लगता है उनके चरणों को दीमक खा गई है। नीचे (मनुष्य, सामान्य व्यक्ति, भूकण आदि) भूमण्डल में मानव की संकल्प शक्ति विद्यमान है, मन्त्रोच्चारण चल रहा है जो जग से उस पार उतारने वाला है। आस्था से भरा जीवन है, आजीविका की चिन्ता नहीं इसे, धरती की शरण मिली है जिसे वह चलता भी है और कार्यवशात् ऊपर चढ़ता भी है किन्तु ऊपर वाले का तो दिमाग ही चढ़ सकता है जिससे उसका विनाश और पतन ही संभव है। यह सभी जानते हैं - "प्रश्‍न- चिह्न ऊपर ही लटका मिलता है सदा, जबकि पूर्ण-विराम नीचे। प्रश्‍न का उत्तर नीचे ही मिलता है। ऊपर कदापि नहीं...... उत्तर में विराम है, शान्ति अनन्त। प्रश्‍न सदा आकुल रहता है।" (पृ. 249) प्रश्‍न चिह्न (?) सदा ऊपर लटका हुआ ही मिलता है प्रश्‍न में सदा आकुलता, घबराहट मिलती है किन्तु पूर्ण विराम (।) नीचे ही मिलता है इसी प्रकार प्रश्न का उत्तर ऊपर नहीं नीचे ही मिलता है। उत्तर में हमेशा-हमेशा के लिए विश्राम, शाश्वत शान्ति मिलती है। सही उत्तर मिल जाने के पश्चात प्रश्‍न उत्पन्न ही नहीं होता, सागर में बूंद के समान उत्तर में प्रश्न विलीन हो, नष्ट हो जाता है सदा के लिए।
  12. इस अवसर पर इन्द्र भी धरती के स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु तीखे नुकीले बाणों को बादलों के शरीर पर छोड़ रहा है। जिससे बादल दल का रूप छिन्न-भिन्न हो बिगड़ता जा रहा है, उनकी अशोभनीय, दीन हीन स्थिति बन पड़ी है इस दयनीय-सी दुर्दशा को देख रोना आता है। सम्पूर्ण आकाश में जहाँ देखो वहाँ भू-कण ही भू-कण दिखाई दे रहे हैं। जल-कण नाम मात्र के शेष बचे हैं। यही कारण है कि सागर ने पुनः अग्रिम कार्य की जानकारी दे जल से भरे और बादलों को आकाश में भेजा। सागर के निर्देशानुसार बादलों ने बिजली पैदा की, क्रोध से भरी बिजली भी चमकने लगी। बिजली की चमक से सबकी आँखें बन्द हो गई, स्वभाव से अनिमेष इन्द्र की भी पलकें झपकने लगी तभी इन्द्र ने अमोघ अस्त्र वज्र निकाल कर बादलों पर फेंका। वज्र की मार खा बादलों के मुख से पीड़ा सूचक 'आह' ध्वनि निकली जिसे सुनते ही सौरमण्डल भी बहरा हो गया। रावण की भाँति मेघों का रोना, चीखना सागर के लिए अपशकुन सिद्ध हुआ और इधर धूल के कण चमकती बिजली की आँखों में घुसकर उसे दुख देने लगे। ऐसी विपरीत परिस्थिति में बिजली भी कांपने लगी शायद इसी कारण से वह चंचल क्षणिक आयु वाली बनी है। सागर ने पुनः आदेश दिया बादलों को कि- इन्द्र ने अमोघ अस्त्र चलाया तो तुम रामबाण चलाओ, किन्तु पीछे हटने का नाम नहीं लेना, ईंट का जवाब पत्थर से दो और शीघ्र ही पत्थरों के समान बड़े- बड़े ओलों की वर्षा करो। सागर की बात सुनते ही बादलों में नई चेतना आई, स्वाभिमान जागृत हुआ और ओलों का उत्पादन सो ऐसा लगा कहीं भरे हुए अपार भण्डार का उद्घाटन ही हुआ हो। हल्के-भारी, छोटे-बड़े, त्रिकोण, चतुष्कोण, पञ्च पहलुदार अनेक आकार, अनेक भार वाले गोल-सुडौल ओलों से सारा आकाश भर गया।
  13. मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज (शिष्य समाधिस्थ आचार्य श्री सन्मति सागर जी) के मन में आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के दर्शन की इतनी तीव्र उत्कंठा थी कि उन्होंने मंडला से डिंडोरी तक का 105 km का विहार 2 दिन में तय कर लिया।
  14. इतना भी निश्चित है जो परोपकारादि सत्कार्य करता है उसकी ख्याति, स्वयमेव ही जगत् में फैलती जाती है और वह प्रशंसा का पात्र बनता है। इन्द्र के समान ही कवि भी यह चाहता है कि मैं जैसे ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला हूँ वैसा ही ज्ञाता-दृष्टा, राग-द्वेष परिणाम रहित बन सकें। संसार के प्रपंच में न फैंसू, न ही किसी के दुख में कारण बनें और मैं मात्र कहने वाला ही नहीं किन्तु कथनी के समान ही करनी अर्थात् करने वाला बनूं। इस लेखनी की भी यही भावना है - "कृति रहे, संस्कृति रहे आगामी असीम काल तक जागृत...... जीवित..... अजित!" ( पृ. 245) कर्तव्य भावना से लिखी गई यह कृति (रचना) और श्रमण संस्कृति (संस्कारित परम्परा) भविष्यकालीन अनन्तकाल तक सबका हित करती हुए जीवित और अपराजित रहे। क्योंकि कृति और संस्कृति से ही सहज स्वभाव की उपलब्धि, सुन्दर शाश्वत मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है किन्तु- "कर्ता न रहे, वह विश्व के सम्मुख कभी भी" (पृ. 245) कर्ता कभी भी विश्व के समक्ष न रहे, क्योंकि कर्तापन की बुद्धि ही खारे अर्थात् दुखी संसार को बढ़ाने वाली है। इससे अपना और दूसरों का दोनों का ही हित नष्ट होता जा रहा है।
  15. माँ का आशीर्वाद पाते ही दृढ़मना मुनियों के समान कार्य करने में संकल्पित हो, भरपूर उत्साह के साथ अनगिन कण आकाश की ओर उड़ते हैं। युद्ध के बिगुल को सुनते ही, रणांगन में कूदते देश-प्रेमी योद्धाओं के समान अथवा तपाये हुए लोहे के पिण्ड पर पड़ते घन प्रहार से उठती हुई चिनगारियों के समान लाल-लाल धरती के कण, बरसने की आकांक्षा लिए आकाश में डोल रहे जल-कणों को सोखते जा रहे हैं, वे जल-कण भूकणों की राशि को हटाकर नीचे धरती पर नहीं आ पा रहे हैं। नीचे गिरते जलकणों से ऊपर उड़ते भू-कण जोर से टकराते हैं परिणाम स्वरूप एक-एक जल-कण कई कणों में विभाजित हो बिखर जाते हैं। सौरमण्डल में चारों ओर जोरदार आवाज गूंजने लगती है एवं धुआँ-धुआँ सब ओर फैल गया है। ऐसा लग रहा है कि बादलों के ऊपर विघ्न-संकट आ गया है। भू-कण सघन होकर भी पाप से रहित हैं, जबकि जल-कण पाप से भरे, भयभीत हो भाग रहे हैं। जल-कणों के पीछे भू कण भाग रहे हैं लगता है उन्हें नष्ट करके ही विश्राम लेगें। इस अवसर पर देवों का स्वामी इन्द्र भी स्वर्ग छोड़कर आया है, किन्तु वह किसी को दिखाई नहीं दे रहा है, केवल उसका धनुष ही कार्य करता हुआ दिख रहा है इन्द्र धनुष । इसका कारण - "महापुरुष प्रकाश में नहीं आते आना भी नहीं चाहते, प्रकाश-प्रदान में ही उन्हें रस आता है। यह बात निराली है, कि प्रकाश सबको प्रकाशित करेगा ही स्व हो या पर, ‘प्रकाश्य' भर को .......!" (पृ. 245 ) महान् व्यक्ति कभी भी सबके सामने प्रमुख बन आगे आते नहीं और आना भी नहीं चाहते। दुनिया को सुखी बनाने, सन्मार्ग दिखाने में ही उन्हें आनंद आता है। यह बात अलग है कि प्रकाश सबको प्रकाशित करता ही है स्वयं हो या अन्य, प्रकाशित होने की योग्यता हो बस उसमें । फिर संसार में सभी वस्तुएँ सत्ता को लिए हैं ही, जिनमें प्रकाश्य होने की योग्यता है वे सभी प्रकाशित होंगे ही आज नहीं तो कल। और यह भी संभव कहाँ कि सत्ता हो और प्रकाशित ना हो अर्थात् जो व्यक्ति परोपकार, दया, दान, सेवा आदि सत्कार्य करता है उसकी महानता इसी में है कि वह अपने कर्तव्यों के बदले ख्याति, पूजा, लाभ की चाह न रखे। यदि रखता है तो वह सही पुण्य-फल को प्राप्त नहीं कर पाता। विशेष- आचार्य जयसेन ने समयसार की टीका में लिखा है-जो व्यक्ति ख्याति, पूजा की चाह लेकर दान, पूजा, तप आदि करता है वह धागे के लिए हीरों का हार तोड़ता, तक्र (छाछ) के बदले में रत्न देता, कोदों धान की रक्षा के लिए चंदन की बाड़ी लगाता तथा बर्तन मांजने की भस्म प्राप्ति के लिए मोतियों को भस्म करता हुआ मनुष्य के समान मूर्ख माना जाता है अथवा दान को व्यर्थ गॅवाता है।
  16. इधर बादल ने भूमि में रहने वाले, आकाश में उड़ने वाले पक्षियों का हा-हाकार सुना और राहु के मुख में छटपटाते सूर्य को देखा तो उसके मन को अत्यधिक संबल मिला और कई गुणा खून बढ़-सा गया उसका। अज्ञानता का ही यह परिणाम है कि दूसरे पक्ष की हार में अपना खून बढ़ जाता है और अपनी पराजय में दिल का दौरा पड़ता है। (लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए) अब बादलों की वर्षा और प्रशंसा, मन के उल्लास को रोकने वाला कौन है? प्रलयकारी वर्षा की पूरी-पूरी भूमिका बन चुकी है। इस प्रकार के माहौल को देखकर धरती सोचती है - "जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम करती है, और जब दवा काम नहीं करती तब दुआ काम करती है। परन्तु, जब दुआ भी काम नहीं करती तब क्या रहा शेष? कौन सहारा? सो सुनो!....... दृढ़ा धुवा संयमालिंगिता यह जो चेतना है - स्वयंभुवा काम करती है|" (पृ. 241) जब हवा से स्वास्थ्य लाभ न हो तो दवा का प्रयोग किया जाता है जब दवा भी कार्यकारी न रहे तो प्रभु-प्रार्थना की जाती है, किन्तु जब प्रभु की प्रार्थना से भी काम ना बने तो फिर शेष क्या बचा, कौन सहारा? तो सुनो संयम से जुड़ी, दृढ़-स्थायी जो चेतना (आत्म शक्ति) है स्वयंभुवा (स्वयं से ही उत्पन्न) काम करती है। यूँ सोचती हुई धरती माँ से विनयपूर्वक प्रार्थना करते हुए धरती के कण आज्ञा माँगते हुए कहते हैं कि-माँ के मान की रक्षा के लिए हम भी रामचन्द्रजी के वंश के ही अंश हैं, यद्यपि निम्न से निम्न, छोटे से छोटे व्यक्ति की भी हम प्रशंसा सेवा करते हैं, उन्हें सहारा देते हैं किन्तु अहंकार में डूबे, मानी वंश को नष्ट करने वाले भी हम हैं माँ। जिस श्रेष्ठ परम्परा में ऋषि, मुनि, अर्हन्त हुए हैं उनकी स्मृति नष्ट न हो जाए, अब वंश की रक्षा हेतु हमें कर्तव्य करने दो माँ। मात्र चर्चा पर चर्चा, जो श्रम का कारण है उसे रहने दो, अब मीठे-मीठे भाषणों की अपेक्षा कर्तव्य का नीरस भोजन ही स्वास्थ्य वर्धक और स्वादपूर्ण लग रहा है। और वे कण जगहितकारी माँ धरती के चरणों में अपना माथा रखते, नमस्कार करते हैं। फिर सुनते हैं माँ के मुख से मंगलकारी आशीर्वाद - "पाप-पाखण्ड पर प्रहार करो प्रशस्त पुण्य स्वीकार करो!" (पृ. 243) अधर्म, दुष्कर्म, छल-कपट, दिखावटी आडम्बर पर आघात/वार करो क्योंकि पाप को नष्ट करना ही प्रशंसनीय पुण्य को प्राप्त करना है। जाओ कर्तव्य करो मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
  17. राहु इतना भी नहीं सोच पा रहा है कि धरती की गोद में सभी को अभय मिलेगा और यह बहुमूल्य जीवन सबका सुरक्षित रहेगा, किन्तु कुटिल सर्प की चाल वाला, क्रूर काल के समान गाल वाला सज्जनता को छोड़ मात्र बाहुबल के प्रयोग में लगा। जंगली सूकर के समान चाल चलने वाला, हिताहित विवेक रहित, स्वभाव से क्रूर राहु और अधिक क्रोधित हुआ। रौद्रता से भरा बिना हल्ला किए चुपचाप पूरा का पूरा साबुत सूर्य को निगल लेता है। सागर में बूंद, माँ की गोद में नन्हे शिशु के समान भास्कर राहु के मुख में प्रविष्ट हुआ। सूर्य राहु के मुख में जाते ही दिन अस्त-सा होने लगा और दीन-हीन बना, गरीबी से घिरा गृहस्थ के समान दिखने लगा दिन। यह सायंकाल है या अकाल में ही यमराज आ गया पता नहीं। तिलक से रहित स्त्री के माथे के समान आकाश शोभित नहीं हो रहा है, दशों दिशाएँ भी जीर्ण-ज्वर से ग्रस्त क्षीण काया वाली दिख रही हैं। सूरज के न दिखने से कमल की पाखुड़ियाँ भी बंद हुई जा रही हैं। वन उपवन की शोभा भी मिटती-सी नजर आने लगी और अपने मित्र अग्नि तत्त्व का जीवन लुटता-सा देख हवा (पवन) भी चलना बंद हो गई है। आकाश में स्वतंत्र, परिग्रह से रहित हो उड़ने वाले, निरंतर श्रम करने वाले, वात्सल्य भावों से भरे, तामसिक-राजसिक वृत्ति से दूर, बैर रहित, ज्ञान सहित पक्षी गण भी आकस्मिक आने वाले अंधकार से भयभीत हो अपने विचरण को पूर्ण कर, थके हुए-से घौंसलों में वापस आ मौन बैठ जाते हैं। किन्तु उनका मन चिन्ता में डूबा हुआ है तन अनुकम्पा से काँप रहा है और भीतर करुणा से भीगे कण-कण पीड़ा के कारण बाहर आ-आकर रो रहे हैं चिल्ला रहे हैं। कान तो कल के ही है किन्तु कल (बीता हुआ दिन) जैसा पक्षियों का कलरव सुनाई नहीं दे रहा है। सुनाई दे रहा है तो केवल वन, उपवन, बाग-बगीचों के हृदय में भरा करुण क्रन्दन-आक्रन्दन'! कौओ-कबूतरों में, चील-चिड़िया- चातक पक्षियों के मन में, बाघ-भेड़-बाजपक्षी-बगुलों में, सारंग-हिरण-सिंह के शरीरों में, लावापक्षी-खरगोशों-गधों-खलिहानों में, सुन्दर कोमल-लताओं में, ऊँचे- ऊँचे शिखरों में, वृक्ष-पौधों-पत्तों में, फलों में निमेष (पलक झपकाने में लगने वाला समय) मात्र भी विरह से उत्पन्न वेदना का वातावरण देखा नहीं जा रहा सो पंछी दल ने मन ही मन संकल्प लिया कि, जब-तक सूर्यग्रहण का संकट नहीं टलेगा तब तक के लिए भोजन-पान, तन के श्रृंगार, मनोरंजन, मिष्ठान आदि सबका त्याग।
  18. आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के ५० वे संयम स्वर्ण महोत्सव निमित्त श्री पार्श्वनाथ दि.जैन मंदिर जवाहर नगर गोरेगांव (पश्चिम ) मुम्बई में रविवार दि.२५ मार्च २०१८ से शुक्रवार ३० मार्च २०१८ तक गुरु गुणगान व्याख्यान माला का आयोजन बाल ब्र. श्री पंकज भैया जी (श्री उदासीन आश्रम इसरी बाजार झारखंड) के द्वारा किया जा रहा है । समय : प्रातः ८.३० से ९.३० सायंकाल ८.०० से ९.०० आयोजक : श्री दिगम्बर जैन संमाज गोरेगांव ( पश्चिम ) मुम्बई
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