इधर कई दिनों बाद स्वच्छ नीले आकाश का दर्शन हुआ। पवन भी कर्तव्य कर आनन्दित हो उठा तथा उत्साह-उल्लास से भरा सौरमण्डल कहता है- धरती की कीर्ति बनी रही और हम सबकी माँ धरती के प्रति अटूट आस्था बनी रहे बस यही भावना है। धरती के कण-कण वन उपवन, पवन सभी सूर्य की आभा से नहा गये हैं, कलियाँ खुल खिल गई हैं। नयी उमंग, नये रंग, नया उत्साह सब कुछ नया-नया-सा प्रतीत होने लगा है।
वातावरण में नव-नूतन परिवर्तन दिखा किन्तु मौन बैठे हुए शिल्पी पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। मन्द-मन्द सुगन्धित बहती हुई हवा भी उसे प्रभावित ना कर सकी, उसके रोम-रोम रोमांचित गद्गद् भी कहाँ हुए? सो ठीक ही है जो अस्पर्श' को छूना चाहता है उसे पुद्गल का स्पर्श क्या प्रभावित करेगा? गुलाब की महक शिल्पी की नासा तक पहुँच कर भी उसकी नासा को जगा न सकी, सच है भोगों में लीन भोक्ता को भी जब वह तृप्त न कर सकी तो फिर योगी को बुलाना, बाहर लाने का प्रयास करना, कठिन तो होगा ही। घोंसलों को छोड़ आकाश में उड़ते पक्षियों की चहचहाहट भी चाह रहित शिल्पी के कानों को लुभा न सकी।
ऐसी स्थिति में स्वयं दूर जन्म लेने वाले सूरज ने अपनी किरणों के माध्यम से कमलों की पांखुड़ियों की भाँति शिल्पी की आँखों को सहलाना शुरु किया। इस सहलाव से शिल्पी को अनुभूत हुआ माँ की ममता का स्नेह भरा स्पर्श, आँखें पूरी खुलीं उसकी और उसने किया दिनकर का दर्शन । दूर से दर्शन पाकर भी नेत्रों से खुशियों के आँसू टपकने लगे धरती के कण-कण प्रभु-भक्ति में डूबने की इच्छा करने लगे। इसी तरह पूरा का पूरा वातावरण छूना, देखना, प्रसन्न होना और कुछ पाने की चाह में डूबने लगा, लीन हो गया।