इतना भी निश्चित है जो परोपकारादि सत्कार्य करता है उसकी ख्याति, स्वयमेव ही जगत् में फैलती जाती है और वह प्रशंसा का पात्र बनता है। इन्द्र के समान ही कवि भी यह चाहता है कि मैं जैसे ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला हूँ वैसा ही ज्ञाता-दृष्टा, राग-द्वेष परिणाम रहित बन सकें। संसार के प्रपंच में न फैंसू, न ही किसी के दुख में कारण बनें और मैं मात्र कहने वाला ही नहीं किन्तु कथनी के समान ही करनी अर्थात् करने वाला बनूं। इस लेखनी की भी यही भावना है -
"कृति रहे, संस्कृति रहे
आगामी असीम काल तक
जागृत...... जीवित..... अजित!" ( पृ. 245)
कर्तव्य भावना से लिखी गई यह कृति (रचना) और श्रमण संस्कृति (संस्कारित परम्परा) भविष्यकालीन अनन्तकाल तक सबका हित करती हुए जीवित और अपराजित रहे। क्योंकि कृति और संस्कृति से ही सहज स्वभाव की उपलब्धि, सुन्दर शाश्वत मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हो सकती है किन्तु-
"कर्ता न रहे, वह
विश्व के सम्मुख कभी भी" (पृ. 245)
कर्ता कभी भी विश्व के समक्ष न रहे, क्योंकि कर्तापन की बुद्धि ही खारे अर्थात् दुखी संसार को बढ़ाने वाली है। इससे अपना और दूसरों का दोनों का ही हित नष्ट होता जा रहा है।