जन्म भूमि की लाज, माँ पृथ्वी की प्रतिष्ठा दृढ़ श्रद्धान के बिना स्थिर रह नहीं सकती और इस प्रतिकूलता में भी भूकणों का अद्भुत साहस, त्याग देख शिल्पी प्रभु की आराधना में लीन हो जाता है। शिल्पी ने आज तक प्रभु से कुछ माँगा नहीं, इसका यह अर्थ नहीं कि उसे किसी प्रकार की पीड़ा अथवा अभाव की अनुभूति नहीं। हाँ धन की कमी, कोई कमी नहीं और प्रभु से इसकी माँग भी व्यर्थ है क्योंकि जो प्रभु के पास ही नहीं उसकी क्या माँग करना, किन्तु परमार्थ का अभाव शिल्पी को असहनीय हो रहा है। शीघ्र ही परमार्थ (मोक्ष, सत्य, ईश्वर) का सद्भाव हो इसमें प्रभो !
भले ही बालक हाथ-पैर न पटक रहा हो, कपड़े नहीं फाड़ रहा हो, न ही क्रोध करता हुआ रो रहा हो, इसका यह अर्थ नहीं की वह दुखी नहीं है, ऐसा निर्णय लेना भी ठीक नहीं है। किसी कारण वश सिसकते हुए बालक के दुख, पीड़ा को माँ ही जान सकती है। शिल्पी की अन्तर्वेदना का दर्शन यदि अन्तर्यामी ( मन की बात जानने वाला ) प्रभु को भी नहीं होगा तो किसे होगा? किसकी आँखें सजल हो सांत्वना दे सकेंगी?
हे भगवन् । किसी भी तरह धरती की गरिमा बने रहे, जल का (बादलों का) अहंकार समाप्त हो जाए बस | परीक्षा की भी सीमा होती है, अति परीक्षा भी प्रायः पात्र को मार्ग से च्युत कर देती है, पाथेय यानी सहयोगी के प्रति भी आस्था कमजोर पड़ती जाती है। बार-बार विघ्न आने से धीरज दृढ़ता भी हिलती है मन भयभीत होने लगता है। क्या अकाल में ही कुम्भ को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा अर्थात् नष्ट हो जाएगा?