राहु इतना भी नहीं सोच पा रहा है कि धरती की गोद में सभी को अभय मिलेगा और यह बहुमूल्य जीवन सबका सुरक्षित रहेगा, किन्तु कुटिल सर्प की चाल वाला, क्रूर काल के समान गाल वाला सज्जनता को छोड़ मात्र बाहुबल के प्रयोग में लगा। जंगली सूकर के समान चाल चलने वाला, हिताहित विवेक रहित, स्वभाव से क्रूर राहु और अधिक क्रोधित हुआ। रौद्रता से भरा बिना हल्ला किए चुपचाप पूरा का पूरा साबुत सूर्य को निगल लेता है। सागर में बूंद, माँ की गोद में नन्हे शिशु के समान भास्कर राहु के मुख में प्रविष्ट हुआ। सूर्य राहु के मुख में जाते ही दिन अस्त-सा होने लगा और दीन-हीन बना, गरीबी से घिरा गृहस्थ के समान दिखने लगा दिन।
यह सायंकाल है या अकाल में ही यमराज आ गया पता नहीं। तिलक से रहित स्त्री के माथे के समान आकाश शोभित नहीं हो रहा है, दशों दिशाएँ भी जीर्ण-ज्वर से ग्रस्त क्षीण काया वाली दिख रही हैं। सूरज के न दिखने से कमल की पाखुड़ियाँ भी बंद हुई जा रही हैं। वन उपवन की शोभा भी मिटती-सी नजर आने लगी और अपने मित्र अग्नि तत्त्व का जीवन लुटता-सा देख हवा (पवन) भी चलना बंद हो गई है।
आकाश में स्वतंत्र, परिग्रह से रहित हो उड़ने वाले, निरंतर श्रम करने वाले, वात्सल्य भावों से भरे, तामसिक-राजसिक वृत्ति से दूर, बैर रहित, ज्ञान सहित पक्षी गण भी आकस्मिक आने वाले अंधकार से भयभीत हो अपने विचरण को पूर्ण कर, थके हुए-से घौंसलों में वापस आ मौन बैठ जाते हैं। किन्तु उनका मन चिन्ता में डूबा हुआ है तन अनुकम्पा से काँप रहा है और भीतर करुणा से भीगे कण-कण पीड़ा के कारण बाहर आ-आकर रो रहे हैं चिल्ला रहे हैं।
कान तो कल के ही है किन्तु कल (बीता हुआ दिन) जैसा पक्षियों का कलरव सुनाई नहीं दे रहा है। सुनाई दे रहा है तो केवल वन, उपवन, बाग-बगीचों के हृदय में भरा करुण क्रन्दन-आक्रन्दन'! कौओ-कबूतरों में, चील-चिड़िया- चातक पक्षियों के मन में, बाघ-भेड़-बाजपक्षी-बगुलों में, सारंग-हिरण-सिंह के शरीरों में, लावापक्षी-खरगोशों-गधों-खलिहानों में, सुन्दर कोमल-लताओं में, ऊँचे- ऊँचे शिखरों में, वृक्ष-पौधों-पत्तों में, फलों में निमेष (पलक झपकाने में लगने वाला समय) मात्र भी विरह से उत्पन्न वेदना का वातावरण देखा नहीं जा रहा सो पंछी दल ने मन ही मन संकल्प लिया कि, जब-तक सूर्यग्रहण का संकट नहीं टलेगा तब तक के लिए भोजन-पान, तन के श्रृंगार, मनोरंजन, मिष्ठान आदि सबका त्याग।