इस संकट की परिस्थिति को देख दाँत कटकटाते हुए गुलाब के काँटे भी कुछ कहते हैं कि अरे संकट! समस्त इच्छाओं से परे रहने वाले निर्दोष, निश्छल पथिकों के पथ में काँटा बनकर फैल नहीं, अपना हठ छोड़ और कहीं दूर चला जा । अन्यथा तुझे पता नहीं काँटे से ही काँटा निकलता है, फिर कुछ ही पलों में पता न चलेगा तेरा। इसी बीच डाल पर लटकता फूल काँटे की बात काटे बिना, डाँटे बिना ही विशेष सक्रिय हो काँटे की उत्तेजना को शान्त करने हेतु समयानुकूल बात कहता है -
"जब सुई से काम चल सकता है
तब तलवार का प्रहार क्यों करें ?
जब फूल से काम चल सकता है
तब शूल का व्यवहार क्यों करें?
जब मूल में भूतल पर रह कर ही
फल हाथ लग रहा है
तब चूल पर चढ़ना वह
मात्र शक्ति-समय का अपव्यय ही नहीं,
सही मूल्यांकन का अभाव भी
सिद्ध करता है।" (पृ. 257)
हे काँटे भाई ! चिन्ता न करो संकट शीघ्र ही नष्ट होने वाला है और जब सुई से ही काम निकल जावे तो तलवार की क्या आवश्यकता? और जब फूल यानी प्रेम-व्यवहार से ही सफलता मिलने लगे तो शूल यानी कठोरता का व्यवहार क्यों किया जावे? जब नीचे जड़ के पास ही रहकर फल प्राप्त हो रहा हो तो पेड़ के ऊपर चढ़ना, शक्ति और समय को व्यर्थ ही नष्ट करना है साथ ही साथ परिस्थिति को सही-सही नहीं समझ पाना ही माना जायेगा। यूँ सुगन्ध के कोष फूल ने नीति- न्याय का तरीका बतलाते हुए, प्रेम-वात्सल्य का खजाना दिखाते हुए अपने अनन्य मित्र पवन (हवा) को याद किया।