पवन की बात सुन फूल कुछ न बोला, केवल उसने अपनी दृष्टि सुदूर बैठे शिल्पी की ओर कर दी, जो उदास बैठा हुआ, औरों को क्या अपने तन को भी नहीं देख पा रहा है प्रभु भक्ति में डूबा हुआ है। कुछ पल बाद ही क्रोधित हो ऊपर बादलों की ओर नजर की फूल ने, जो बादल कलह करने में लीन हैं, विघ्न की मूर्ति बने हैं। भिन्न-भिन्न पात्रों को देखकर भिन्न मुखाकृति, परिणामों की बदलाहट पर्याप्त थी पवन के लिए क्योंकि -
"अनुक्त भी ज्ञात होता है अवश्य
उद्यमशील व्यक्ति के लिए
फिर ...... तो
संयमशील भक्ति के लिए
किसी भी बात की अव्यक्तता
आकुलित करेगी क्या?
सब कुछ खुलेगी-खिलेगी
उसके सम्मुख....अविलम्ब !" (पृ. 260)
जो पुरुषार्थशील होता है वह बिना कहे ही इशारे से सब कुछ समझ जाता है फिर जो संयमित हो, भक्ति-भाव से भरा हो, वह कैसे न समझ पाएगा। सहज ही सारा का सारा विषय, अपना कर्त्तव्य उसे समझ में आ गया।
प्रासंगिक कार्य पता चलते ही उसे पूर्ण करने के लिए सानन्द तैयार होता है पवन । धरती द्वारा किए उपकार को चुकाने हेतु भयंकर रूप धारण करता हुआ पवन बादलों से कहता है-सन्मार्ग से च्युत हुए हे बादलों! अपनी शक्ति का सदुपयोग करो, छल-कपट छोड़ो क्योंकि इससे जीवन में कभी भी तुम्हें सुख- शान्ति नहीं मिल सकती। अब कुछ करो अथवा न करो, तुम्हारा अन्तिम समय निकट आ ही गया है। मति की गति से भी तीव्र गति वाला होता हुआ पवन आकाश में पहुँचता है, बादलों को अपनी चपेट में ले उनका मुख समुद्र की ओर मोड़ देता है। फिर पूरी ताकत लगाकर एक ठोकर लगा देता है, जैसे बालक गेंद को पैर से ठोकर लगा दूर फेंक देता है। फिर क्या कहना? बादलों सहित अनगिनत ओले एक साथ सागर में जा गिरते हैं। जैसे पापकर्म के वशीभूत हो पापी जीव नरकों में जा पड़ते हैं।