इस तरह लेखनी के मुख से भू-कणों की प्रशंसा और अपनी मूल्यहीनता सुन ओले निर्दयी बन भू-कणों पर टूट पड़े। फिर भू-कणों ने भी, ओलों को टक्कर दे आकाश में बहुत दूर फेंक दिया। जिस प्रकार प्रक्षेपास्त्र द्वारा आर्यभट्ट, रोहिणी आदि उपग्रहों को धरती-कक्ष के बाहर उछाल दिया जाता है। इस टकराव से कुछ ओले तो पल भर में टूट-फूट कर छिन्न-भिन्न हुए ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों देवों द्वारा परिमल पारिजात पुष्प की पांखुरियाँ ही बिखेरी गई हों, जो मन्द मुस्कान के साथ नीचे उतर रही हों। नीचे उतरते ओलों के टुकड़ों को अपने मस्तक पर लिए उड़ते हुए भू-कण ऐसे लग रहे हैं जैसे हनुमानजी अपने माथे पर हिमालय पर्वत ले उड़ रहे हैं।
घण्टों तक चल रहे इस घटनाक्रम को देख इन दिनों (1984 में) चर्चा का विषय बनी ‘‘स्टार वार' की बात भी महत्त्वहीन फीकी लग रही है। ऊपर घटती इस घटना को कुम्भ भी खुली आँखों से देख रहा था, किन्तु उसके मुख पर जरा-सा भी भय नहीं झलक रहा है, वह साक्षीभाव' से सब देख और जान रहा है। इस पर भी आश्चर्य की बात तो यह है कि एक भी ओला गिरकर कुम्भ को फोड़ ना सका। भूकणों की जीत हो चुकी है और ओलों की हार हो चुकी है फिर भी क्रोध की हार होना सहज नहीं।