दिन पर दिन कई दिन व्यतीत हुए शिल्पी दिखा नहीं सो गुलाब के पौध के समक्षा पुरानी यादें झलक आने लगी-प्रेम भरी मुस्कान,लाड़-प्यार की बात, कोमल हाथों से पौधों के तन को सहलाना, मधुर संगीत सुनाते हुए शीतल जल का सिंचन करना, यह सब अतीत की बातें हो गईं।
पौधे ने देखा-विषयभोगों के सेवन से उदासीन भक्ति-योग में लीन सुदूर प्रांगण में बैठा हुआ है शिल्पी वह। उसकी मति प्रभु भक्ति में लीन है किन्तु मुख पर हल्की-सी उदासी छाई है। अपने स्वामी को धर्मसंकट में पड़ा देख गुलाब का पौधा बोल पड़ा हे भगवन् -
"इस संकट का अन्त निकट हो,
विकट से विकटतम संकट भी
कट जाते हैं पल भर में;
आपको स्मरण में लाते ही
फिर.........तो.........प्रभो!
निकट-निकटतम निरखता
आपको हृदय में पाते भी
विलम्ब क्यों हो रहा है,
आर्य के इस कार्य में ......?" (पृ. 255)
आपको स्मरण में लाते ही संसार के सारे संकट क्षण भर में दूर हो जाते हैं, जैसे सूर्य की किरणों द्वारा अंधकार समूह पल में भाग जाता है। फिर जिसने आपको सदा अपने हृदय में ही बैठा रखा है, ऐसे मेरे स्वामी, सज्जन पुरुष-आर्य के कार्य में देरी क्यों हो रही है यह संकट शीघ्र ही दूर हो प्रभो!