द्रव्य कर्म, भाव कर्म एवं नौकर्म ये तीन प्रकार के कर्म होते है। जीव के राग-द्वेष आदि परिणाम भाव कर्म कहलाते हैं। ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्म, द्रव्य कर्म कहलाते है एवं शरीरादि नौकर्म कहलाते है। नौकर्म के बिना कर्म कभी फल नहीं दे सकते। जीव के परिणाम और कर्म इन दोंनो के बीच की स्थिति है नौकर्म की। इसलिए नौकर्म पर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। नौकर्म पर हर्ष-विषाद वही करते है जो कर्म सिद्धांत को नहीं जानते। इसी बात को समझाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि-
नौ कर्म तो पोस्टमेन के समान है, जैसे किसी ने खत में बहुत बुरा एवं झूठा समाचार लिखकर भेजा पोस्टमेन ने वह खत हमारे घर आकर दिया, समाचार विदित होते ही क्या आप पोस्टमेन पर गुस्सा करते हैं या उस पर चिल्लाते हैं कि तूने इस प्रकार का झूठा समाचार लाकर क्यों दिया। तो आप कहेंगे नहीं मुझे पोस्टमेन पर गुस्सा नहीं आता क्योंकि पोस्टमेन तो मात्र निमित्त है बल्कि उस पर गुस्सा आता है। जिसने खत लिखा है उसी प्रकार से हमें अपने किए कर्मों पर क्रोध आना चाहिए नौकर्म तो पोस्टमेन के समान बीच की स्थिति वाला है। उस पर हर्ष-विषाद करना व्यर्थ है।