तपस्या के माध्यम से शरीर को कष्ट पहुँचता है इसलिए कई लोगों की धारणा है कि आत्मा की चर्चा की जाये शरीर तो जड़ है। इसे कष्ट देने से कोई धर्म नहीं होता और बाहरी तप करने से, शरीर को सुखाने से कहीं आत्मा का लाभ नहीं हो जाता। इसी बात को किसी सज्जन ने आचार्य श्री के सामने शंका व्यक्त करते हुए रखी कि-
तप करने की क्या आवश्यकता है? तब आचार्य श्री ने कहा कि-भीतरी तप निर्जरात्मक है- बाह्य तप उस आभ्यन्तर तप में निमित्त कारण है। जैन दर्शन में बाह्य तप को जो महत्त्व दिया गया है वह भीतरी तप के माध्यम से दिया गया है। भीतरी तप के द्वारा ही कार्य होता है- बाह्य तप उसमें सहायक होता है। जिसको निर्जरा तत्त्व का ज्ञान हो गया वह तप करते हुए अपना काम करता जाता है। आचार्य कहते हैं कि तप के माध्यम से इतनी गहराई तक जाया जा सकता है कि मात्र एक भव ही शेष रह सकता है। उसके बाद मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है। मन कषायों का केन्द्र है, मन कषायों का स्टोर रूम जैसा है- इस मन का निग्रह करने के लिए | आभ्यन्तर तप किये जाते हैं। मन में जो कुण्ठापन है, मन में जो कमी है, मनगत जो विकार है उनको दूर करने के लिए मन को ही धक्का देना (वश में करना) आवश्यक है। वह कमजोर मुमुक्षु माना जाता है। जो अपने मन के विकार को, मन की कमजोरी को जल्दी-जल्दी दूर करना नहीं चाहता है। जबकि प्रत्येक मुमुक्षु मन के विकार को जल्दी-जल्दी निकालना चाहता है। मन की कमजोरी निकले बिना मुमुक्षु की निर्जरा तत्त्व में वृद्धि नहीं हो सकती है।
मनोभू का निरोध करने वाले के लिए मन को रोकना भी आवश्यक है। मन को रोकने पर मनोभू रुक जाता है और आप स्वयंभू बन जाते हैं।