जो हमेशा आत्मा में कांटे की तरह चुभे उसे शल्य कहते हैं। यह माया, मिथ्या और निदान रूप तीन प्रकार की होती है। व्रती शल्य रहित होता है। जिसके अंदर शल्य विद्यमान रहती है, उसके व्रत निर्दोष नहीं पल सकते। निःशल्य होने के लिए मन-वचन-काय में स्थिरता होना अनिवार्य है। आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में व्रती की परिभाषा देते हुए लिखा है कि शल्य रहित व्रती कहलाता है। जब तक एक भी शल्य है तब तक जीव व्रती नहीं कहा जा सकता।
एक दिन सम्यग्दर्शन एवं व्रत का व्याख्यान करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि- निःशल्य होना यह सम्यग्दर्शन का प्रतीक है और व्रती होना चारित्र का प्रतीक है। सम्यग्दर्शन के बिना लिए गए व्रत सम्यग्चारित्र में नहीं आते इसलिए निर्दोष सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए निःशल्य होना आवश्यक है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि- जिस वृक्ष के मूल में कीड़ा लगा हो वह वृक्ष को शुष्क करता रहता है, काटता रहता है और माली ऊपर से बहुत सिंचन करता है तो वह व्यर्थ है। भौंरा आकर के कहता है-हे बागवान! तू भगवान कैसे बनेगा अर्थात् तेरा ऊपर-ऊपर पानी सिंचन करना व्यर्थ है, क्योंकि अन्दर मूल में कीड़ा वृक्ष को काट रहा है। उसी प्रकार आचार्य उन व्रतियों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि अन्दर में यदि शल्य विद्यमान है और ऊपर से व्रतों को पाल रहे हो तो वह व्यर्थ है। अतः सर्वप्रथम शल्य रूपी कीड़े को निकालकर व्रत रूपी पानी से सिंचन करोगे तभी जीवन रूपी वृक्ष हरा-भरा हो सकेगा।
आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि- जैसे भोजन सुगन्धित एवं स्वादिष्ट हो लेकिन उसमें एक कंकड़ आ जाने से सारा कुरकुरा भोजन भी किरकिरा हो जाता है इसी प्रकार आगामी काल में भोगों की आकांक्षा के साथ व्रत ग्रहण करने से व्रतों की भी यही स्थिति हो जाती है।