प्रतिकूल परिस्थितियों में आने वाले आवेग का नाम क्रोध है। क्रोध एक ऐसा विकारी भाव है जो हमारे तन, मन और धर्म सभी को दूषित करता है। यह एक खतरनाक बीमारी है और हमेशा से चली आ रही है। एवं व्यापक भी है, इसलिए यह बीमारी-सी नहीं लगती। दूसरों की गलती पर क्रोध करने का अर्थ है दूसरों की गलती की सजा स्वयं को देना।
कुछ लोगों का कहना है क्रोध मैं नहीं करता कर्म का उदय कराता है, इसका समाधान देते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि - कर्म कभी क्रोध नहीं करता, कर्म के उदय में आत्मा क्रोध करता है। पुद्गल (कर्म) में क्रोध कराने की शक्ति है पर आप क्रोध करेंगे तब वह करा सकता है वरना नहीं करा सकता। आचार्य श्री जी ने अजीव से क्रोध कैसे करता है यह उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे दर्पण सामने रखा है और मुर्गा उसके सामने खड़ा है उसमें दिखाई देने वाली अपनी ही आकृति से लड़ता है जब उसकी चोंच से खून आने लगता है तो वह समझता है दर्पण में बनी हुई आकृति से आ रहा है, क्रोध भी उसी मुर्गे के समान है।