आचार्य श्री जी से किसी व्यक्ति ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- स्वाध्याय प्रेमियों से सुनने को मिलता है कि- अभिषेक, पूजन, दान आदि से पुण्य कर्म का बंध होता है, इसलिए इन्हे हेय बुद्धि से करना चाहिए। तो हे गुरुवर! आप यह बताने की कृपा करें कि पूजन कौन-सा तत्त्व है? क्या पूजन करने से मात्र बंध ही होता है? तब आचार्य श्री जी ने कहा कि- पूजन संवर तत्त्व का कारण है, शुभ कर्म का बंध भी होता है लेकिन जो पूजन को हेय (त्याज्य) मानता है, वह आस्रव का समर्थन करने वाला तथा मिथ्यात्व का पोषण करने वाला है। एक जगह आचार्य समंतभद्र स्वामी जी कहते है कि- हे भगवन्! मुझे गुप्ति नहीं समिति चाहिए, मैं आपकी भक्ति, पूजन के माध्यम से पार हो जाऊँगा। पूजा को केवल बंध का कारण कहना यह कौन से शास्त्र में और कहाँ लिखा है? बताओ। साक्षात् मुक्ति के लिए तो आत्मध्यान करना है लेकिन उसके पहले भक्ति-पूजन कही गयी है। आत्मध्यान तक पहुँचने के लिए तो भगवान् की भक्ति आदि संवर–निर्जरा का कारण रूप है उसे अपनाना होगा। आगम में लिखा है कि - " एकस्याकारणे अनेक कार्या भवति–'वन्हिवत्' ।” अर्थात् पूजा आदि के द्वारा प्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग बंध अधिक होता है, तथा अप्रशस्त प्रकृति का अनुभाग बंध मंद होता है। शुद्धोपयोग प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है तो वह है शुभोपयोग।