प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अच्छा एवं सुंदर बनाना चाहता है लेकिन मात्र शरीर की सुंदरता में अटक जाता है मन और आत्मा को सुंदर बनाने की नहीं सोचता। बाह्य सौन्दर्य कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन अंतरंग में कलुषता भरी हो तो उस सौन्दर्य से आँखे तो तृप्त हो सकती हैं लेकिन आत्मा कभी तृप्ति का अनुभव नहीं कर सकती। याद रहे काया का रंग भले ही अच्छा न हो कार्य करने का ढंग अच्छा होना चाहिए। तपस्या के माध्यम से ही हमारे जीवन में सौंदर्य फूटता है, जैसे सोना आग में तपकर और निखरता है।
यह प्रसंग उस समय का है जब ब्रह्मचारी विद्याधर जी ने अपने आपको आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया था और गुरूवर ने समर्पण देखकर उन्हे जैनेश्वरी मुनि दीक्षा प्रदान की थी। दीक्षा के उपरांत मुनिवर श्री विद्यासागर जी महाराज उस समय अजमेर शहर में विराजमान थे तभी कर्नाटक प्रान्त के सदलगा ग्राम से ब्र0 विद्याधर जी के पिता मल्लप्पा जी मुनिराज के दर्शनाथ अजमेर शहर पहुँचे, गुरूवर के दर्शन करते ही उनके शरीर की कांति को देखकर मल्लप्पा जी कह उठे “साधना से आंतरिक और बाय दोनों सौन्दर्य संवरते हैं।”
इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि शरीर में सौन्दर्य तपस्या से आता है श्रृंगार से नहीं। व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान शरीर के बनावटी श्रृंगार से नहीं बल्कि उसके आत्मिक गुणों से होती है।