निरन्तर राग-द्वेष में लिप्त रहने वाला संसारी प्राणी भयभीत बना रहता है। कहीं मरण का भय, कहीं धन एवं स्वास्थ्य की हानि का भय, कहीं असफलता का भय तो कहीं पद-प्रतिष्ठा छिन न जाए इसका भय निरन्तर प्राणियों को लगा रहता है। जहाँ देखो वहा भय ही भय है।
आचार्य श्री जी ने एक दिन समयसार की कक्षा में बताया कि सम्यग्दृष्टि सात भयों से मुक्त होता है। उसे इहलोक, परलोक, मरण, अरक्षा, अत्राण, आकस्मिक, अगुप्ति रूप किसी भी प्रकार का भय नहीं होता है। किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- बहुत सारे लोग अपने आपको धर्मात्मा एवं सम्यग्दृष्टि मानते है। लेकिन फिर भी उन्हें भय सताता रहता है। तब आचार्य श्री ने कहा कि यहाँ पर उस सम्यग्दृष्टि की बात कहीं जा रही है जो वैरागी हो। क्योंकि "वैराग्यमेवाभयं” वैराग्य ही अभय है। तब मैंने आचार्य श्री से पूछा कि- हे आचार्य श्री! आपसे बात करने में जो भय लगता है वह सात भयों में से कौन से भय में आता है। तब आचार्य श्री जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि- यहाँ पर एक महाराज बैठे हैं, वे कह रहे हैं कि महाराज आपसे बात करने में भय लगता है और खुली मंच पर बात कर रहें हैं। फिर भी बता देता हूँ। वो डर न जावे गुरु से बात करते समय डरना ही चाहिए यह गुरु का बहुमान एवं आदर' कहलाता है। यह विनय है, मर्यादा है, कहीं अनर्थ शब्द न निकल जावें यह पाप भीरूता है। कहा भी है "भोग में रोग का भय है, सुख में क्षय का भय है, धन में अग्नि का और राजा का भय है, दास में स्वामी का, विजय में शत्रु का, कुल में कुलटा स्त्री का, मान में मलीनता आने का, गुण में दुर्जन का भय है, शरीर में मृत्यु का इसी प्रकार सभी में भय है परन्तु आश्चर्य है, वैराग्य में अभय है।"
आचार्य श्री जी स्वयं भय रहित होते हुए हम सभी को भय रहित होने की शिक्षा दे रहे हैं। भय रहित होने का उपाय भी बता रहे हैं। जहाँ पर भय होता है वही पर आपत्तियाँ आती हैं और जहाँ वैराग्य आ जाता है वहाँ पर विपत्तियाँ भी सम्पत्तियाँ बन जाती हैं। इसलिए वैराग्य को धारण कर जीवन को भय से मुक्त कीजिए।