रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रंथ की वाचना के अन्तर्गत आचार्य श्री जी देव-मूढ़ता का स्वरूप समझा रहे थे। उन्होंने कहा कि- वरदान प्राप्त करने की इच्छा से, आशा से युक्त होकर राग-द्वेष से मलिन देवताओं को पूजना देव-मूढ़ता कही जाती है। तभी किसी साधक ने आचार्य श्री जी से शंका व्यक्त करते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति वीतरागी देव के सामने कुछ मांगता है तो क्या वह भी देव-मूढ़ता में आता है? तब आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि-
नहीं, वह मूढ़ता नहीं कहलाएगी, वह एक प्रकार से अज्ञानता कहलाएगी। क्योंकि वीतरागी प्रभु राग-द्वेष रहित होते हैं। अतः न वे किसी से कुछ लेते हैं और न किसी को कुछ देते हैं। लेकिन मांगने वाला वीतराग प्रभु के सही स्वरूप को नहीं समझ पा रहा है लेकिन समझने के निकटतम है। एक न एक दिन वह अवश्य समझ जाएगा। सच्चे देव की सच्ची पहचान न कर पाना अज्ञानता ही है|