अनादि काल से इस आत्मा की स्थिति झुकने की नहीं रही है, यह मस्तक (गर्दन) सीधा रखना चाहता है। नमस्कार करना, एक दृष्टि से आत्म समर्पण करना है, अपने को लघु समझना है, और जिसके सामने नत मस्तक हुआ है, उसको अपने से बड़ा समझना है। मन, वचन, काय, कृतकारित-अनुमोदन, बाह्य तथा आभ्यंतर से एकमेक होकर नमस्कार करने से समीचीनता आती है। जब भी कोई मंगल कार्य करने जाते हैं तो सर्व प्रथम अपने इष्ट देवताओं को नमस्कार करते हैं। ज्ञान वह है, जिसमें अपूर्णता न्यूनता तथा अज्ञानता नहीं रहती है। हमें गुरु बनना है, अपने आपको गुरु समझना नहीं है।
अपूर्ण चीज दुख का अनुभव करा देती है। पूर्णता की उपासना में ही सुख का संवेदन है। हमें उपासक बनना पड़ेगा तभी अपूर्णताएँ समाप्त होंगी। जिस प्रकार जौहरी बनने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति जौहरी के पास जाएगा, उसकी सेवा करेगा, पगचम्पी करेगा और जवाहरात के सम्बन्ध में बार-बार प्रश्न पूछ कर ज्ञान प्राप्त करेगा। धर्म के क्षेत्र में भी हमें उसी प्रकार सेवक बनना पड़ेगा। जिस प्रकार मोटर गाड़ी की सफाई व ड्राइवर की पगचम्पी क्लीनर करता है जिसे संस्कृत भाषा में ‘किन्नर' कहते हैं वह Cleaner ड्राइवर की सेवा करके गाड़ी चलाना सीखता है।
स्याद्वाद का यही रहस्य है कि वह जीव किसी रूप में ज्ञानी है तो किसी रूप में अज्ञानी भी है। इन्द्रिय ज्ञान का अभाव सिद्ध परमेष्ठी में है। अतः कथचित् रूप से हम सिद्ध परमेष्ठी को इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा अज्ञानी कह सकते हैं। परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान उनके पास है, वे अनंत ज्ञानी, अक्षय ज्ञानी हैं। हमें अपेक्षा-वाद को देखना पड़ेगा और आगे चलना पड़ेगा। नमस्कार करना उनके जैसा रूप प्राप्त करने, गुण प्राप्त करने के लिए है। जिस प्रकार वास्तविक जौहरी को हीरा-मोती सौंपने में कोई ऐतराज नहीं है, उसी प्रकार हमको अपने आपको किन्नर समझकर महावीर भगवान् को सौंप देना चाहिए। जब भगवान् के चरणारविन्द में हम बैठ जाते हैं, तब धीरे-धीरे सारे गुण अपने आप चले आते हैं।
चींटी से लेकर हाथी तक, कोई भी प्राणी कमजोर नहीं है। अष्ट कर्म आपके बुलाये हुए अतिथि हैं, वे कुछ समय के लिए हैं। हम चाहें तो इन कर्मों को आगे नहीं भी बुला सकते हैं। इनसे घबराने की जरूरत नहीं है। मूर्ति पत्थर तो है ही, पर हमें यह समझना होगा कि यह क्या है ? किस भगवान् की मूर्ति है, उनमें क्या क्या गुण थे, किस मार्ग पर वो चले, किस रूप में हमें इसको मानना है? बच्चा दूर से ही माँ को देख कर भाग कर पास आता है, जबकि माँ उसे आवाज भी नहीं देती, पास आने को इशारा भी नहीं करती है। मतिज्ञान व श्रुतज्ञान का अभाव एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय किसी भी जीव में नहीं है। हमारा ज्ञान जो कुंठित हुआ है, उस ज्ञान को पूर्ण करने (जगाने) हेतु अपने आपको प्रभु को समर्पित करना है। रागी व द्वेषी व्यक्ति कभी भी न सुख प्राप्त कर सकता है और न किसी को सुख दे सकता है। यह पत्थर की मूर्ति एक ऐसा सान्निध्य है, जहाँ राग व द्वेष का प्रादुर्भाव नहीं है, क्योंकि भगवान् महावीर राग व द्वेष नहीं रखते हैं। अत: उनकी मूर्ति के पास जाने व दर्शन करने पर राग-द्वेष नहीं होता है।
सिंह को पास में देखकर भय होता है और हम अपने आपकी रक्षा की चिन्ता करते हैं, पर गाय को देखकर ऐसा नहीं होता है। अत: यही बात रागी और वीतरागी की मूर्ति के बारे में है।
त्यागी, तपस्वी, साधुगण उपसर्ग में तथा सिद्धान्त का खण्डन होने पर सिंह वृत्ति का प्रयोग करते हैं पर समता का सवाल जहाँ आता है, उस समय गोचरी वृत्ति का परिचय देते हैं। गाय को देखकर दया भाव जागते हैं, पर सिंह को देखकर भयभीत हो जाते हैं। समता की चरम सीमा वीतराग भगवान् में है, अन्य किसी में नहीं। जिस प्रकार पहलवान को देखकर पहलवान बनने, रूपवान को देखकर रूपवान बनने तथा विद्वान् को देखकर विद्वान् बनने की इच्छा होती है, उसी प्रकार वीतराग मुद्रा को देखकर वीतराग भाव जागृत होते हैं, वीतरागी बनने की इच्छा होती है। जब वीतरागी बनने की इच्छा शुरू हो जाती है, तो समझो बेड़ा पार होने की शुरूआत हो जाती है।
जो प्रशंसा और निन्दा में हर्ष-विषाद नहीं करते हैं, उन्हें नमस्कार करो। जो गुण का समादर करता है, उसी के लिए भगवान् नेता है। दर्पण उठकर यह नहीं कहता कि मेरे में शक्ति है, मुझे देखकर अपनी सूरत देखो। चेहरा देखने वाला व्यक्ति स्वयं दर्पण के पास जाता है। अत: हमें अपने आपको देखने के लिए भगवान् के पास जाना ही पड़ेगा।