अहिंसा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- कदम में फूल हों और कलम में शूल हो तो अहिंसा का पालन नहीं हो सकता, लेखन के माध्यम से भी 'अहिंसा' की वृत्ति कितनी है, यह मीमांसा की जा सकती है।
- जब तक अहिंसा जीवन में नहीं आएगी, तब तक शब्दों में ताकत नहीं आ सकती, अहिंसा के क्षेत्र में बुद्धि का, तन, मन, धन का उपयोग करना चाहिए। राग की अनुत्पति ही अहिंसा है।
- अनुकूलता कथचित् हमें साधक बना सकती है, क्योंकि अनुकूलता में पुरुषार्थ किया जा सकता है।
- अहिंसा की रक्षा पैसे के बल पर नहीं, बल्कि अहिंसा को अपने जीवन में अपनाकर ही हो सकती है।
- अहिंसा धर्म की शरण में रहने वाला हमेशा खुश रहता है और कमियाँ उसके जीवन में कभी भी नहीं रहतीं। उसका हमेशा विकासवान् जीवन हुआ करता है।
- अहिंसा में कार्य करने से स्व-पर दोनों में कल्याण की बात हो जाती है।
- जो लोग अहिंसा धर्म को अपने जीवन में स्थान देते हैं, उन्हें दुनिया में हर जगह स्थान मिलता है।
- अहिंसा के क्षेत्र में दिया हुआ हमेशा बढ़ता है कम नहीं हो सकता। दुनियाँ की बैंक फैल हो सकती है पर यह अहिंसा की बैंक कभी फैल नहीं हो सकती।
- अहिंसा धर्म वह संख्या है कि जिस शून्य में आगे लग जावे तो उसका महत्व दश गुना बढ़ जाता है। शून्य अकेला कोई शक्ति नहीं रखता यदि उसमें आगे अंक ना हो तो। शून्य का महत्व अंक से अांका जाता है।
- अन्याय, अत्याचार के साथ संग्रह किया हुआ धन खाने-पीने में नहीं आता।
- अहिंसा धर्म के अनुयायी रागी होते हुए भी वीतरागता की आरती उतारते हैं, राग की नहीं।
- पार्श्वनाथ भगवान् के अंदर सहज करुणाभाव था उन्होंने विषधर जैसे जीवों के प्रति भी करुणा भाव धारण किया और उन्हें भी स्वर्ग सुख का लाभ पहुँचाया।
- जो अहिंसा धर्म को मानने तैयार नहीं हैं, उन्हें दिव्यध्वनि सुनने नहीं मिल सकती।
- धर्म वही है, जो दया से विशुद्ध हो।
- अहिंसा महान् प्रकाश है, आज देश को मात्र अहिंसा की आवश्यकता है।
- दया धर्म से जो रहित होते हैं, वे कितने ही धनी बन जावें पर वह सात्विक गुणों से भूषित नहीं हो सकते।
- मुमुक्षु वही है, जो करुणावान होता है।
- दूसरे की पीड़ा को दूर करने से दूसरे की नहीं, स्वयं की पीड़ा दूर होती है।
- जिसके घट में दया करुणा नहीं है, वह कभी भी कैसे अपने स्वरूप को, जीवत्व को हासिल कर सकता है ?
- अहिंसक व्यक्ति का जन्म होते ही चारों ओर हरियाली छा जाती है।
- दया के बिना संसार हमेशा झुलसता रहता है, क्योंकि दया के अभाव में धर्म नहीं होता।
- दया का अभाव बता देता है कि अंदर कषाय है।
- दया अनुकम्पा से ही धर्म की शुरुआत होती है।
- वह हृदय शून्य है, जो अहिंसा पर आस्था नहीं रखता।
- हृदय में यदि सत्य अहिंसा के प्रति आस्था है तो समझना राम, महावीर भगवान् से आज भी हमारा सम्बन्ध निश्चित है, इसमें कोई संदेह नहीं।
- अहिंसा के अभाव में देश क्या देश रह जावेगा ? आदमियों का नाम देश नहीं है, बल्कि संस्कृति का नाम देश है।
- जहाँ पर दया है वहाँ सब कुछ मिलता रहता है, धन तो वहाँ बरसेगा ही।
- जीवदया के अभाव में साधना कितनी भी हो ? वरदान सिद्ध नहीं होगी।
- मन, वचन व काय की चेष्टाओं के द्वारा अपनी स्वयं की भी हिंसा होती है।
- मुनिराज कम खर्चा ज्यादा फायदा हो, ऐसी ही चेष्टायें करते हैं, वे आगमानुसार चेष्टायें करते हुए अप्रमत्त ही रहते हैं।
- आत्म-धर्म हिंसा रहित धर्म से ही प्राप्त होता है।
- रागादि भाव का होना भी हिंसा है।
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