Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन सुरभि 6 - रास्ता मोक्ष का

       (1 review)

    आज नमस्कार के द्वितीय पहलू के बारे में कुछ कहना है। प्राय: करके जो शब्दों में वर्णन किया जाता है वह बाहर की कीर्ति रह जाती है। शब्दों के माध्यम से जो नमस्कार किया है, उसके बाद आन्तरिक अनुभूति भी होनी चाहिए। अब मैं यहाँ पर नमस्कार कर रहा हूँ, अपने लिए। प्रभु की बात अब अलग हो गई। वास्तविक नमस्कार, भक्ति, स्तुति जो भी है, वह अपने लिए। नमस्कार का लक्ष्य अपने आपको नमस्कार का होना चाहिए। प्रभु को नमस्कार साधन है, माध्यम है, उपाय है। यह उपादेय, सिद्धि अथवा लक्ष्य नहीं है। प्रभु को नमस्कार कोई Artificial नहीं है। हमें अब नमस्कार के बाद आगे बढ़ना है। आत्मानुभूति से, अपने आपका रसास्वादन, अपने आपको टटोलने से ही संसार का भ्रमण रुक सकता है। महावीर भगवान् का यही सन्देश है कि भगवान् की भक्ति मुक्ति नहीं दे सकती है, पर मुक्ति का रास्ता बता सकती है। हमें आत्म भक्ति करनी है। जिसको अपनी कीर्ति, नाम की इच्छा नहीं रहती है, वही आत्मा की भक्ति कर सकता है। जब तक बालक कमजोर है, तभी तक पिताजी का हाथ पकड़ कर चलता है, बाद में स्वयं चलता है। इसी प्रकार प्रभु की भक्ति भी जब तक मोक्ष का रास्ता नहीं दिखे तब तक करना है, उसके बाद आत्मा की भक्ति करना है। दस मंजिल की इमारत पर खड़ा एक दोस्त अपने दूसरे दोस्त को जो सड़क से मंजिल के नीचे से जा रहा है, आवाज देता है। नीचे वाले दोस्त ने उसे देखा, बात भी करी, पर अगर वह दोस्त को ही देखता रहेगा तो दोस्त को प्राप्त नहीं कर सकेगा। उसे दोस्त की तरफ से ध्यान हटा कर दोस्त के द्वारा बताई गई सीढ़ियों (रास्ते) की तरफ देखना होगा तभी वह ऊपर पहुँच सकता है। इसी प्रकार हमने प्रभु के बताए हुए मार्ग को समझ लिया है, अब अगर प्रभु को ही देखते रहे, भक्ति ही करते रहे तो प्रभु के पास कैसे पहुँचेंगे। अब तो प्रभु को भूल कर मोक्ष मार्ग की ओर आरूढ़ होना है। यह नमस्कार का दूसरा पहलू है। हमें अब मार्ग को नहीं भूलना है। प्रभु को गौण करके आत्मा की ओर देखो तो आपको ऐसा रसास्वादन मिलेगा जैसा पहले कभी नहीं मिला होगा। आचार्य कहते हैं कि प्रभु का, नमस्कार का वर्णन करना अलग बात है, और अनुभव करना अलग बात है। मिसरी को चखने पर रसास्वादन का वर्णन करने को शब्द नहीं मिलेंगे। इसी प्रकार नमस्कार को चख लेने पर, अनुभूति कर लेने पर, उसका वर्णन उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। नमस्कार संवेदन की चीज है। दस मंजिल पर खड़ा दोस्त कह रहा है कि अब मुझे भूल जा और इस रास्ते को अपना। रास्ते को मत भूलना, नहीं तो कहीं का भी नहीं रहेगा। शब्दों में कभी-कभी अवास्तविकता भी आ जाती है। आप लोग शब्दों को पकड़ना चाह रहे हैं। आप साधन को साध्य मान रहे हैं। यह तो सिर्फ उपाय है। यह तो आरम्भ है, अन्त नहीं। अभी तक नमस्कार से जो अनुभूति आनी चाहिए, उससे आप वंचित रहे। इस रहस्य को समझना ही वास्तविक भगवान् के निकट पहुँचना है।

     

    आप कहते हैं कि महाराज का प्रवचन बहुत मीठा होता है। अरे भाई ! पर महाराज को जो अनुभव हो रहा है, वह अगर आपको हो जाये तो आप यह कहना भूल जाओ। ऐसा कहने से सुस्वर नाम के कर्म का बन्ध होता है। निज संवेदन से दुख की प्राप्ति नहीं सुख का, शांति का अनुभव होता है। आज तक हमने बाहर से नमस्कार, जय जयकार किया है। प्रभु तक पहुँचने के लिए प्रभु की तरफ से दृष्टि हटानी ही होगी। और प्रभु जिस रास्ते गये हैं, उस रास्ते की ओर दृष्टि करनी होगी। इसमें थोड़ी भी कमी रह जाये तो हम नीचे गिरते हैं। स्खलन हो जाता है। हमें अपने आपका अनुभव करना होगा। बहुत कुछ त्याग आपके द्वारा हो चुका है और भी त्याग करने को तैयार है। त्याग होना और त्याग करना, दोनों अलग बात है। जो हमारे वास्तविक निकट है उसे त्याग करना है। चश्मे को देखने के बाद दृष्टि में जो भेद पड़ा है, जो कमी है, उसे दूर करना है, तभी संवेदन हो सकता है। अनेकों ने साधु मार्ग को अपनाया, घर बार को छोड़ा, दुनियादारी को छोड़ा। यह प्रारंभ है, अन्त नहीं पहुँचने की प्रारम्भिक विधि है। घर बार को छोड़ना अनिवार्य है, परन्तु घर बार छोड़ने के बाद अनिवार्य रूप से लक्ष्य तक पहुँच ही जाये, यह जरूरी नहीं है। घर बार छोड़ने के बाद भी बहुत कुछ करना है।

     

    सामायिक में नींद आती है, गर्मी में पसीना भी आ जाता है, हम पोंछने लग जाते हैं, परन्तु दुकान पर ग्राहकों की भीड़ हो, हवा भी नहीं हो, पसीना आ रहा हो, खाने का समय निकल रहा हो, तो भी चिन्ता नहीं करेंगे। यह कष्ट कोई कष्ट नहीं है, क्योंकि धन में वृद्धि हो रही है, नोटों की लहर आ रही है। अगर ऐसा उपयोग हम सामायिक में लगा दें, तो कल्याण हो जाये। दुकानदारी में एक वक्त खाना छूट जाये तो कोई कष्ट महसूस नहीं करेंगे पर वैसे महीने में एक दिन भी एक समय भोजन नहीं करने का नियम नहीं लेंगे। वहाँ मन विषयों में लगा है, आत्मा में नहीं लगा है, विषयों का विकास हो रहा है, आत्मा के परिणामों का ह्रास हो रहा है। पुद्गलों में वृद्धि हो रही है। महावीर ने कहा है कि त्याग को भी त्याग दो। यानि प्रभु का नाम लो और प्रभु को भी भुला दो, यह नमस्कार का दूसरा पहलू है। स्व-संवेदन करना है। जब स्व-संवेदन में चले जाते हैं, तब बाहर के व्यक्तियों को भूल जाते हैं, यहाँ तक कि प्रभु को भी भूल जाते हैं।

     

    घर छोड़ने के बाद यह कहें कि मैं घर का त्यागी हूँ, गलत है। घर में शारीरिक वेदना होती थी, अब इसका त्यागी, उसका त्यागी, यह एक मानसिक वेदना चालू हो जाती है। हम में छोड़ने के बाद परिवर्तन आना चाहिए। घर में हलवा खाता था, यहाँ त्याग हो गया। पर हलवे को भूला नहीं। घर में खाने के उपरांत कुछ समय के लिए तो हलवे को भूल जाता है, पर त्याग करने के बाद दिन भर इसी को याद करना, इससे न तो हलवे का ही रसास्वादन हो पा रहा है और न ही स्व-संवेदन। इससे अपना कल्याण नहीं होगा।

     

    आप नौकर से मालिक बनो, उसके कहे अनुसार ही जय-जय मत बोलो, उसके आगे भी बढ़ी। हमें घर के साथ सब को भूलना है।

     

    व्यक्तित्व को, अहं को, निज को मिटादे।

    तू भी स्व को सहज में प्रभु में मिलादे ॥

    आप मिलाना पसंद नहीं करते, क्योंकि आप सोचते हैं कि मिलाने के बाद मेरा अस्तित्व, मेरा-प्रभुत्व, स्वामित्व, नाम नहीं रहेगा। लेकिन हमें अपने को, अपने व्यक्तित्व को मिलाना होगा, इससे अपारता अपरिमितता आ जाएगी। हममें अलौकिक शक्ति जागृत हो जाएगी। हमने नमस्कार करने के बाद आज तक अपने को नदी की तरह मिटाना पसन्द नहीं किया। वर्तमान हमेशा नहीं रहेगा। लहर समुद्र में उठती है और मिटती है। वास्तविक शक्ति अपने आपको नमस्कार करने से मिलेगी। लेकिन अगर अपने आपको याद नहीं कर सको, तो प्रभु को तो याद रखना ही है। दोनों को ही नहीं भूलना है। उपासना तब तक करो, जब तक उपास्य नहीं बन जाते। उसके लिए कोशिश करना है।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

      

    सफलता चाहते हो तो सीढ़ियां चढ़नी ही पड़ेगी

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...