यह प्राणी-मात्र का सौभाग्य है कि अभी भी इस धरती पर धर्म का अस्तित्व बना हुआ है। इस चातुर्मास के अन्तराल में हमें परिश्रम करके उस ध्रुव बिन्दु पर पहुँचने की चेष्टा करनी है, जहाँ पर पहुँचने के बाद सुख और शांति का अनुभव होता है। रात दिन हमें उसी प्रकार की बातें (चर्चाएँ) करनी है जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती ९६ हजार रानियों के साथ धर्म चर्चाएँ करता था।
इस वर्तमान काल में हमें उपाय की बात करनी है, अपाय की नहीं। आज हम राजनीति, सामाजिक, भौतिक व शैक्षणिक आदि किसी भी क्षेत्र में अपनी भावना को दुनियाँ के सामने रख सकते हैं, कोई हमारा विरोध नहीं करेगा। लोग आपकी दृष्टि समझेंगे, उद्देश्य जानना चाहेंगे और सोचेंगे कि इससे समाज व देश की उन्नति है या नहीं।
भगवान् महावीर का २५ सौ वां निर्वाण दिवस निकट आ रहा है, इस शुभ अवसर पर हमें अपनी बातें दुनियाँ के सामने रखनी हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्र में भिन्न-भिन्न लक्ष्य को लेकर अनेक व्यक्ति काम करते हुए पाये जाते हैं। हमारे आचार्यों ने लोक की सम्मति को ठेस न पहुँचाते हुए और सिद्धान्त की रक्षा करते हुए कार्य करने की व्यवस्था की है। शक्ति की अपेक्षा और गुणों की अपेक्षा जो अधिक सम्पन्न होता है, उसे ही मुख्य बनाया जाता है। घर में बड़े दादाजी हैं, पर कार्य पिताजी के द्वारा सम्पन्न होता है। यद्यपि राष्ट्रपति देश का सबसे ऊँचा व्यक्ति होता है, पर कार्य के क्षेत्र में राष्ट्रपति को गौण करके प्रधानमंत्री को मुख्य मानते हैं। इसी प्रकार हम सिद्ध का नाम बाद में कर अरहंत का नाम पहले लेते हैं, इसमें कोई सिद्धान्त की अवहेलना नहीं है। कहा भी है
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरुदेव की जो गोविन्द दियो बताय ॥
जिस प्रकार गुरु, गोविन्द (भगवान्) को बताने वाले हैं उसी प्रकार अरहंत भगवान् रास्ता बताने वाले हैं, उन्हीं के द्वारा कल्याणकारी दिव्यध्वनि खिरती है। इसीलिए अरहंत को 'आप्त” माना है। सिद्ध को बताने वाले अरहंत हैं। सिद्ध तो सिर्फ सर्वज्ञ व वीतरागी ही हैं परन्तु अरहंत भगवान् सर्वज्ञ व वीतरागी के अलावा हितोपदेशी भी है। हम अरहंत का दर्शन कर सकते हैं, नमस्कार कर सकते हैं, उनकी दिव्यध्वनि सुन सकते हैं। इसीलिए पंच नमस्कार मंत्र में अरहंत को प्रथम नमस्कार किया है।
हमारे आचार्यों के लेख, उनके क्षेत्र, कार्य, भिन्न रहे हैं पर लक्ष्य एक रहा है। भगवान् महावीर के उपरांत गृहस्थों के हित के लिए स्वामी समंतभद्राचार्य ने लेखनी के द्वारा उपदेश दिया है और वह उपदेश हमें 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' द्वारा मिलता है। गृहस्थों का समुचित विकास किस प्रकार से हो, यह ज्ञान इसी ग्रन्थ से मिलता है। जो इसके अनुसार चलेगा, स्वरूपाचरण में स्थिति का मार्ग उसके लिए प्रशस्त होगा। यह ग्रन्थ एक ऐसी पगडंडी है, जिसमें कंकड़-पत्थर आदि रुकावट नहीं है। इसके द्वारा ही स्वरूपाचरण तक पहुँच सकते हैं।
हम अपने लिए तो सब कुछ करते हैं पर जब दूसरों को, जो स्खलित हैं, दृष्टि प्रदान करते हैं, रास्ता बताते हैं, तब ही बड़ी बात है। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने जीवन में ऐसे ही कार्य किए हैं। उन्होंने बड़े-बड़े हितोपदेशी ग्रन्थों की रचना कर हमारा बहुत उपकार किया है। आज जो भौतिक आविष्कार हो रहे हैं वे सब रास्तों को समेटते जा रहे हैं। हमारे आचार्य अपना कार्य करने के साथ-साथ दूसरों के लिए रास्ता बनाते गये हैं। आज आचार्य परमेष्ठी भी वही रास्ता बता रहे हैं जो अरहंत परमेष्ठी बता गये हैं।
स्वामी समंतभद्राचार्य इस युग के महान् आचार्य हैं। उन्हीं के बताए हुए मार्ग का अनुसरण करना है। धर्म ध्वज को लेकर आगे बढ़ना है। इस कार्य में कोई रुकावट, रोड़ा नहीं बनेगा। इसमें सब सहायक बनेंगे, साथ चलेंगे और मार्ग प्रशस्त करेंगे। इसमें अगर बाधक बन सकता है तो सिर्फ ‘मन' बन सकता है। तन, धन और वचन तीनों ही पर 'मन' न हो तो काम नहीं बन सकता है। मन उल्टा व सुल्टा हो सकता है। हमें उसे मजबूत व सुल्टा रखना होगा और आगे बढ़ना होगा। अब गाड़ी Start करना बाकी है, Signal हो चुका है। हमें किधर चलना है? उधर.जिस रास्ते भगवान महावीर गये थे। हमें उस ओर जाना है, जहाँ अहिंसा, सत्यता, अचौर्य, सुशीलता व अपरिग्रह हो। जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि लाइन को बन्द करदे, उस गलत लाइन का फ्यूज उड़ा दें। हमें कुसंगी नहीं, सुसंगी बनना है। अगर हमारा शरीर काम करने लायक नहीं है, वचन भी हमारे नहीं बोलने लायक हैं तथा धन भी खर्च करने के लिए नहीं है, तो भी क्या हुआ ‘मन' तो है, हम अपना रास्ता बना सकते हैं। वर्तमान में तो तन, मन, धन और वचन सब कुछ है, कमी किसी चीज की नहीं है। स्वाभिमानी व्यक्ति को विचार करना चाहिए कि भगवान् महावीर ने राज-पाट, धन-वैभव सारे सुखों को छोड़ा और उन्हीं के २५ सौ वें निर्वाण दिवस के लिए हम १ पैसा रोजाना भी नहीं दे सकते, पैसे को जकड़े हुए हैं, हम कैसे उनके अनुयायी हैं? जब भगवान् की स्थिति कमजोर नहीं है, तब हम उनके भत कहलाने वाले क्यों कमजोर पड़ रहे हैं? महावीर भगवान् को हम वीर कहते हैं। हम त्याग करने में पीछे नहीं हटेंगे। हम मूल धन नहीं तो कम से कम ब्याज तो चुकायेंगे।
भगवान महावीर का दिव्य संदेश आज भी हमारे पास है, ये शास्त्र जीवित लक्ष्मी है। साहित्य हमारे पास है, उसका विकास कर उनके उपदेशों को घर-घर में पहुँचाना है। हम अर्थ त्याग के द्वारा ही विचारों को साकार बना सकते हैं। हमें उस त्याग को अपनाना है, जिसके द्वारा अपने तन, मन के साथ दूसरों के तन, मन को कष्ट न पहुँचे। इसी में सुख निहित है।
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